महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 194 श्लोक 17-31

चतुर्नवत्‍यधिकशततम (194) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्नवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद

तम आदि गुण बुद्धि को बारंबार विषयों की ओर ले जाते है; तथा बुद्धि के साथ-साथ मनसहित पाँचों इन्द्रियों को और उनकी समस्त वृत्तियों को भी ले जाते हैं। उस बुद्धि के अभाव में गुण कैसे रह सकते हैं? यह चराचर जगत बुद्धि के उदय होने पर ही उत्पन्न होता है और उसके लय के साथ लीन हो जाता है; इसलिये यह सारा प्रपंच बुद्धिमय ही है; अत: श्रुति ने सबकी बुद्धिरूपता का ही निर्देश किया है। बुद्धि जिसके द्वारा देखती है, उसे नेत्र और जिसके द्वारा सुनती है, उसे श्रोत्र क‍हते हैं। इसी प्रकार जिससे वह सूँघती है, उसे घ्राण कहा गया है, वही जिहृा के द्वारा रस का अनुभव करती है। बुद्धि त्वचा से स्पर्श का बोध प्राप्‍त कराती है। इस प्रकार वह बांरबार विकार को प्राप्‍त होती रहती है। वह जिस करण के द्वारा जिसका अनुभव करना चाहती है, मन उसी का रूप धारण कर लेता है। भिन्न-भिन्न विषयों को ग्रहण करने के लिये जो बुद्धि के पाँच अधिष्ठान हैं, उन्हीं को पाँच इन्द्रियां कहते हैं। अदृश्‍य जीवात्मा उन सबका अधिष्ठाता (प्रेरक) है। जीवात्मा के आश्रित रहकर बुद्धि (सुख, दु:ख और मोह) तीन भावों में स्थित होती है। वह कभी तो प्रसन्नता का अनुभव करती है, कभी शोक में डूबी रहती है और कभी सुख और दु:ख दोनों के अनुभव से रहित मोहाच्छन्न हो जाती है।

इस प्रकार वह मनुष्‍यों के मन के भीतर तीन भावों में अवस्थित है, यह भावात्मिका बुद्धि (समाधि-अवस्था में) सुख, दु:ख और मोह- इन तीनों भावों को लाँघ जाती है। ठीक उसी तरह जैसे सरिताओं का स्वामी समु्द्र उत्‍ताल तंरगों से संयुक्‍त हो अपनी विशाल तटभूमि को भी कभी-कभी लाँघ जाता है। उपर्युक्‍त भावों को लाँघ जाने पर भी बुद्धि भावात्मक मन में सूक्ष्‍मरूप से स्थित रहती है। तत्पश्‍चात समाधि से उत्थान के समय प्रवृत्‍त्‍यात्मक रजोगुण बुद्धिभाव का अनुसरण करता है। उस समय रजोगुण से युक्‍त हुई बुद्धि सारी इन्द्रियों को प्रवृत्ति में लगा देती है। तदनन्तर विषयों के सम्बन्ध से प्रीतिरूप सत्‍त्‍वगुण प्रकट होता है। उसके बाद पुरुष के आसक्ति आदि दोषों से तमोमय भाव का उदय होता है। प्रसन्नता या हर्ष सत्‍त्‍वगुण का कार्य है, शोक रजोगुण रूप है और मोह तमोगुण रूप। इस संसार में जो-जो भाव हैं, वे सब इन्हीं तीनों के अन्तर्गत हैं। भारत! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष बुद्धि की सम्पूर्ण गति का विशद विवेचन किया है।

बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को काबू में रखे। भारत! सत्‍त्‍व, रज और तम- ये तीन गुण सदा ही प्राणियों में स्थित रहते हैं और इनके कारण उन सब जीवों में सात्त्विकी, राजसी और तामसी- यह तीन प्रकार की अनुभूति देखी जाती है। सत्‍त्‍वगुण सुख की अनुभूति कराने वाला है, रजोगुण दु:ख की प्राप्ति कराता है और जब वे दोनों तमोगुण (मोह)- से संयुक्त होते हैं, तब व्यवहार के विषय नहीं रह जाते। जब शरीर या मन में किसी प्रकार से भी प्रसन्नता का भाव हो, तब यह कहना चाहिये कि सात्त्विक भाव का उदय हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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