महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 192 श्लोक 4-18

द्विनवत्‍यधिकशततम (192) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: नवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 4-18 का हिन्दी अनुवाद

इस विषय में ये श्‍लोक प्रसिद्ध हैं- जो मुनि सब प्राणियों को अभयदान देकर विचरता है, उसकों सम्‍पूर्ण प्राणियों में किसी से भी कहीं भय नहीं प्राप्‍त होता है। जो ब्राह्मण अग्निहोत्र को अपने शरीर में आरोपित करके शरीरस्‍थ अग्नि के उद्देश्‍य से अपने मुख में प्राप्‍त भिक्षारूप हविष्‍य का होम करता है, वह अग्नि-चयन करने वाले अग्निहोत्रियों के लोक में जाता है। जो बुद्धि को संकल्‍परहित करके पवित्र हो शास्त्रोंक्‍त विधि के अनुसार मोक्ष-आश्रम (संयास) के नियमों का पालन करता है, वह मनुष्‍य बिना ईंधन की आग के समान परम शांत ज्‍योतिर्मय ब्रह्मलोक को प्राप्‍त होता है।

भरद्वाज ने पूछा- ब्रह्मन! इस लोक से कोई श्रेष्ठ लोक सुना जाता है; किंतु वह देखने में नहीं आता। मैं उसे जानना चाहता हूँ, आप उसे बताने की कृपा करें।

भृगु जी ने कहा- मुने! उत्तर दिशा में हिमालय के पार्श्‍वभाग में, जो सर्वगुण सम्‍पन्‍न एवं पुण्‍यमय प्रदेश है, वहाँ के भू-भागपर श्रेष्ठ लोक बताया जाता है, वह पवित्र, कल्‍याणकारी और कमनीय लोक है। वहाँ पापकर्म से रहित, पवित्र, अत्‍यंत निर्मल, लोभ और मोह से शून्‍य तथा सब प्रकार के उपद्रवों से रहित मानव निवास करते हैं। वह देश स्‍वर्ग के तुल्‍य है। वहाँ सभी शुभ गुणों की स्थिति बतायी गयी है। वहाँ समय पर ही मृत्‍यु होती है। रोग-व्‍याधि किसी का स्‍पर्श नहीं करते हैं। वहाँ किसी के मन में परायी स्त्रियों के प्रति लोभ नहीं होता। सब लोग अपनी ही स्त्रियों में अनुरक्‍त रहते हैं। वहाँ के निवासी धन के लिये एक दूसरे का वध नहीं करते। किसी को बंधंन में नहीं डालते। उन्‍हें कभी महान विस्‍मय नहीं होता। अधर्म का तो वहाँ नाम भी नहीं है। वहाँ किसी के मन में संदेह नहीं पैदा होता है। वहाँ किये हुए कर्म का फल प्रत्‍यक्ष उपलब्‍ध होता है।

उस लोक में कुछ लोग बड़े-बड़े़ महलों में रहते, अच्‍छे आसनों पर बैठते और उत्तमोत्तम वस्‍तुएँ खाते-पीते हैं। समस्‍त कामनाओं से सम्‍पन्‍न और सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित होते हैं तथा कुछ लोगों को प्राणधारणमात्र के लिये भोजन प्राप्‍त होता है, कुछ लोग बड़े परिश्रम से तपोमय जीवन व्‍यतीत करते हुए प्राण धारण करते हैं (इस प्रकार वह लोक इस लोक से सर्वथा उत्‍कृष्ट है)[1] इस मनुष्‍य लोक में कुछ मनुष्‍य धर्मपरायण होते हैं तो कुछ बड़े भारी ठग निकलते हैं। इसीलिये कोई सुखी ओर कोई दुखी होते हैं। कुछ धनवान और कुछ लोग निर्धन हो जाते हैं। इहलोक में श्रम, भय, लोह और तीव्र भूख का कष्ट होता है। मनुष्‍यों में धन का लोभ विशेष होता है, जिससे अज्ञानी पुरुष मोह में पड़ जाते हैं। इस देश में धर्म और अधर्म करने वाले मनुष्‍यों के विषय में नाना प्रकार की बातें सुनी जाती हैं। जो धर्म और अधर्म दोनों के परिणाम को जानता है, वह विद्वान पुरुष पाप से लिप्‍त नहीं होता है। कपट, शठता, चोरी, निंदा दूसरों के दोष देखना, दूसरों को हानि पहुँचाना, प्राणियों की हिंसा करना, चुगली खाना और झूठ बोलना- जो इन दु्र्गुणों का सेवन करता है, उसकी तपस्‍या क्षीण होती है और जो विद्वान इन दोषों को कभी अपने आचरण में नहीं लाता, उसकी तपस्‍या निरंतर बढ़ती र‍हती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आचार्य नीलकण्ठ ने ‘उत्तरे हिमवत्पाश्वें’ इत्यादि से लेकर इस अध्याय के अन्त तक के श्लोकों का आध्यात्मिक अर्थ किया है। वे परलोक या उत्कृष्ट लोक का अर्थ परमात्मा मानते हैं और इसी दृष्टि से उन्होंने श्रुति और युक्ति का आश्रय ले पूरे प्रकरण की संगति लगायी हैं।

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