महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 108 श्लोक 19-33

अष्टाधिकशततम (108) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टाधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद

भारत! पिता और माता केवल शरीर को ही जन्म देते हैं परन्तु आचार्य का उपदेश प्राप्त करके जो द्वितीय जन्म उपलब्ध होता है वह दिव्य है अजर अमर है। पिता - माता यदि कोई अपराध करे तो भी वे सदा अवध्य ही है; क्योंकि पुत्र या शिष्य पिता-माता और गुरु का अपराध करके भी उनकी दृष्टि में दूषित नहीं होते हैं वे गुरुजन पुत्र या शिष्य पर स्नेह वश दोषारोपण नहीं करते बल्कि सदा उसे धर्म के मार्ग पर ही ले जाने का प्रयत्न करते हैं ऐसे पिता-माता गुरुजनों का महत्त्व महर्षियों सहित देवता ही जानते हैं। जो सत्य कर्म के द्वारा यथार्थ उपदेश के द्वारा पुत्र या शिष्य को कवच की भाँति ढक लेता है सत्यस्वरूप वेद का उपदेश देता और असत्य की रोक-थाम करता है उस गुरु को ही पिता और माता समझे और उसके उपकार को जानकर कभी उससे द्रोह न करे। जो लोग विद्या पढ़कर गुरु का आदर नहीं करते निकट रहकर मन वाणी और क्रिया द्वारा गुरु की सेवा नहीं करते उन्हें गर्भ के बालक की हत्या से भी बढ़कर पाप लगता है संसार में उनसे बडा़ पापी दूसरा कोई नहीं है जैसे गुरुओं का कर्तव्य है शिष्य को आत्मोन्नति के पथ पर पहुँचाना उसी तरह शिष्यों का धर्म है गुरुओं का पूजन करना।

अतः जो पुरातन धर्म का फल पाना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि वे गुरुओं की पूजा-अर्चना करें और प्रयत्नपूर्वक उन्हें आवश्यक वस्तुएँ लाकर दें। मनुष्य जिस कर्म से पिता को प्रसन्न करता है उसी के द्वारा प्रजापति ब्रह्नााजीभी प्रसन्न कर लेता है उसी के द्वारा समूची पृथ्वी की भी पूजा हो जाती है। जिस कर्मसे शिष्य उपाध्याय (विद्यागुरु) को प्रसन्न करता है, उसी के द्वारा परब्रह्य परमात्मा की पूजा सम्पन्न हो जाती है; अतः गुरु माता-पिता से भी अधिक पूजनीय है। गुरुओं के पूजित होने पर पितरों सहित देवता और ऋषि भी प्रसन्न होते है; इसलिए गुरु परम पूजनीय है। किसी भी बर्ताव के कारण गुरु अपमान के योग्य नहीं होता। इसी तरह माता और पिता भी अनादर के योग्य नहीं हैं। जैसे गुरु माननीय हैं, वैसे ही माता-पिता भी हैं। वे तीनों कदापि अपमान के योग्य नहीं हैं। उनके किये हुए किसी भी कार्य की निन्दा नहीं करनी चाहिये।

गुरुजनों के इस सत्कार को देवता और महर्षि भी अपना सत्कार मानते हैं। अध्यापक, पिता और माता के प्रति जो मन-वाणी और क्रिया द्वारा द्रोह करते हैं, उन्हें भ्रूण हत्या से भी महान् पाप लगता है। संसार में उससे बढ़कर दूसरा कोई पापाचारी नहीं हैं। जो माता-पिता का ओरस पुत्र है और पाल-पोसकर बड़ा कर दिया गया है, वह यदि अपने माता-पिता का भरण-पोषण नहीं करता है तो उसे भ्रूणहत्या से भी बढ़कर पाप लगता है और जगत् में उससे बड़ा पापात्मा दूसरा कोई नहीं है। ये सारी बातें जो इस जगत् में पुरुष के द्वारा पालनीय हैं, यहाँ विस्तार के साथ बतायी गयी हैं। यही कल्याणकारी मार्ग है। इससे बढ़कर दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। सम्पूर्ण धर्मों का अनुसरण करके यहाँ सब का सार बताया गया है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में माता-पिता और गुरु का माहात्म्यविषयकएक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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