महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 104 श्लोक 15-29

चतुरधिकशततम (104) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद

जो वस्तु पहले बहुत बड़े समुदाय के अधीन (गणतन्त्र) रह चुकी है तथा जो एक के बाद दूसरे की होती गयी है, वह सबकी सब तुम्हारी भी नहीं है; इस बात को भली-भाँति समझ लेने पर किसको बारंबार चिन्ता होगी। यह राजलक्ष्मी होकर भी नहींं रहती और जिनके पास नहींं होती, उनके पास आ जाती है; परंतु शोक की सामर्थ्य नहींं है कि वह गयी हुई सम्पत्ति को लौटा लावे; अतः किसी तरह भी शोक नहींं करना चाहिये।

राजन! बताओं तो सही, तुम्हारे पिता आज कहाँ है? तुम्हारे पितामह अब कहाँ चले गये? आज न तो तुम उन्हें देखते हो और न वे तुम्हें देख पाते हैं। यह शरीर अनित्य है, इस बात को तुम देखते और समझते हो, फिर उन पूर्वजों के लिये क्यों निरन्तर शोक करते हो? जरा बुद्धि लगाकर विचार करो, निश्चय ही एक दिन तुम भी नहींं रहोगे। नरेश्वर! मैं, तुम, तुम्हारे मित्र और शत्रु ये हम सब लोग एक दिन नहींं रहेंगे। यह सब कुछ नष्ट हो जायेगा। इस समय जो बीस या तीस वर्ष की अवस्था वाले मनुष्य है, ये सभी सौ वर्ष के पहले ही मर जायेंगे। ऐसी दशा में यदि मनुष्य बहुत बड़ी सम्पत्ति से न बिछुड़ जाय तो भी उसे यह मेरा नहींं है ऐसा समझकर अपना कल्याण अवश्य करना चाहिये। जो वस्तु भविष्य में मिलने वाली है, उसे यही माने कि वह मेरी नहींं है तथा जो मिलकर नष्ट हो चुकी हो, उसके विषय में भी यही भाव रखे कि वह मेरी नहीं थी। जो ऐसा मानते हैं कि प्रारब्ध ही सबसे प्रबल है, वे ही विद्वान हैं और उन्हें सत्पुरुषों का आश्रय कहा गया है। जो धनाढ़य नहींं है, वे भी जीते हैं और कोई राज्य का शासन भी करते हैं उनमें से कुछ तुम्हारे समान ही बुद्धि और पौरूष से सम्पन्न है तथा कुछ तुमसे बढ़कर भी हो सकते हैं; परंतु वे भी तुम्हारी तरह शोक नहींं करते। अतः तुम भी शोक न करो। क्या तुम बुद्धि और पुरुषार्थ में उन मनुष्यों से श्रेष्ठ या उनके समान नहींं हो?

राजा ने कहा- ब्रह्मन! मैं तो यही समझता हूँ कि वह सारा राज्य मुझे स्वतः अनायास ही प्राप्त हो गया था और अब महान शक्तिशाली काल ने यह सब कुछ छीन लिया है। तपोधन! जैसे जल का प्रवाह किसी वस्तु को बहा ले जाता है, उसी प्रकार काल के वेग से मेरे राज्य का अपहरण हो गया। उसी के फलस्वरूप मैं इस शोक का अनुभव करता हूँ, और जैसे तैसे जो कुछ मिल जाता है, उसी से जीवन निर्वाह करता हूँ।

मुनि ने कहा- कोसलराजकुमार! यथार्थ तत्त्व का निश्चय हो जाने पर मनुष्य भविष्य और भूतकाल की किसी भी वस्तु के लिये शोक नहींं करता। इसलिये तुम भी सभी पदार्थों के विषय में उसी तरह शोकरहित हो जाओ। मनुष्य पाने योग्य पदार्थों की ही कामना करता है अप्राप्य वस्तुओं की कदापि नहींं। अतः तुम्हें भी जो कुछ प्राप्त है, उसी का उपभोग करते हुए अप्राप्त वस्तु के लिये कभी चिन्तन नहींं करना चाहिये। कोसलनरेश! क्या तुम दैववश जो कुछ मिल जाय, उसी से उतने ही आनन्द के साथ रह सकोगे, जैसे पहले रहते थे। आज राजलक्ष्मी से वंचित होने पर भी क्या तुम शुद्ध हृदय से शोक को छोड़ चुके हो?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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