महाभारत शल्य पर्व अध्याय 41 श्लोक 20-37

एकचत्वारिंश (41) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: एकचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद

तब उन प्राश्निकों ने कहा- ‘आपने पशु के लिये याचना करने वाले बक मुनि का तिरस्कार किया है; इसलिये ये मृत पशुओं के मांसों द्वारा आपके इस राष्ट्र का विनाश करने की इच्छा से होम कर रहे हैं। ‘उनके द्वारा आपके राष्ट्र की आहुति दी जा रही है; इसलिये इसका महान विनाश हो रहा है। यह सब उनकी तपस्या का प्रभाव है, जिससे आपके इस देश का इस समय महान विलय होने लगा हैं। ‘भूपाल! सरस्वती के कुन्ज में जल के समीप वे मुनि विराजमान हैं, आप उन्हें प्रसन्न कीजिये।’

तब राजा ने सरस्वती के तट पर जाकर बक मुनि से इस प्रकार कहा- भरतश्रेष्ठ! वे पृथ्वी पर माथा टेक हाथ जोड़ कर बोले- ‘भगवन! मैं आपकों प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप मुझ दीन, लोभी और मूर्खता से हतबुद्धि हुए अपराधी के अपराध को क्षमा कर दें। आप ही मेरी गति हैं। आप ही मेरे रक्षक हैं। आप मुझ पर अवश्य कृपा करें’। राजा धृतराष्ट्र को इस प्रकार शोक से अचेत होकर विलाप करते देख उनके मन में दया आ गयी और उन्होंने राजा के राज्य को संकट से मुक्त कर दिया। ऋषि क्रोध छोड़ कर राजा पर प्रसन्न हुए और पुनः उनके राज्य को संकट से बचाने के लिये आहुति देने लगे। इस प्रकार राज्य को विपत्ति से छुड़ा कर राजा से बहुत से पशु ले प्रसन्नचित्त हुए महर्षि दाल्भ्य पुनः नैमिषारण्य को ही चले गये। राजन! फिर महामनस्वी धर्मात्मा धृतराष्ट्र भी स्वस्थ चित्त हो अपने समृद्धिशाली नगर को ही लौट आये।

राजन! उस तीर्थ में उदार बुद्धि बृहस्पति जी ने असुरों के विनाश और देवताओं की उन्नति के लिये मांसों द्वारा आभिचारिक यज्ञ का अनुष्ठान किया था। इससे वे असुर क्षीण हो गये और युद्ध में विजय से सुशोभित होने वाले देवताओं ने उन्हें मार भगाया। पृथ्वीनाथ! महायशस्वी महाबाहु बलराम जी उस तीर्थ में भी ब्राह्मणों को विधि पूर्वक हाथी, घोड़े, खच्चरियों से जुते हुए रथ, बहुमूल्य रत्न तथा प्रचुर धन-धान्य का दान करके वहाँ से यायात तीर्थ में गये। महाराज! वहाँ पूर्व काल में नहुषनन्दन महात्मा ययाति ने यज्ञ किया था, जिस में सरस्वती ने उनके लिये दूध और घी का स्त्रोत बहाया था। पुरुष सिंह भूपाल ययाति वहाँ यज्ञ करके प्रसन्नतापूर्वक ऊर्ध्व लोक में चले गये और वहाँ उन्हें बहुत से पुण्य लोक प्राप्त हए। शक्तिशाली राजा ययाति जब वहाँ यज्ञ कर रहे थे, उस समय उनकी उत्कृष्ट उदारता को दृष्टि में रख कर और अपने प्रति उनकी सनातन भक्ति देख सरस्वती ने उस यज्ञ में आये हुए ब्राह्मणों को, जिसने अपने मन से जिन-जिन भोगों को चाहा, वे सभी मनोवान्छित भोग प्रदान किये। राजा के यज्ञमण्डप में बुलाकर आया हुआ जो ब्राह्मण जहाँ कहीं ठहर गया, वहीं उसके लिये सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती ने पृथक- पृथक गृह, शय्या, आसन, षडरस भोजन तथा नाना प्रकार के दान की व्यवस्था की।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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