महाभारत शल्य पर्व अध्याय 29 श्लोक 43-55

एकोनत्रिंश (29) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 43-55 का हिन्दी अनुवाद

संजय कहते हैं- राजन! एक कोस आने पर मैंने भीगे हुए दुर्योधन को गदा हाथ में लिये अकेला खड़ा देखा। उसके शरीर पर बहुत-से घाव हो गये थे। मुझ पर दृष्टि पड़ते ही उसके नेत्रों में आंसू भर आये। वह अच्छी तरह मेरी ओर देख न सका। मैं उस समय दीन भाव से खड़ा था। वह मेरी उस अवस्था पर दृष्टिपात करता रहा। मैं भी युद्ध क्षेत्र में अकेले शोकमग्न हुए दुर्योधन को देखकर अत्यन्त दुःख शोक में डूब गया और दो घड़ी तक कोई बात मुंह से न निकाल सका। मस्तक पर मुकुट धारण करने वाले सहस्रों मूर्धाभिषिक्त नरेश जिसके लिये भेंट लाकर देते थे और वे सब के सब जिसकी अधीनता स्वीकार कर चुके थे, पूर्वकाल में एक मात्र वीर कर्ण ने जिसके लिये चारों समुद्रों तक फैली हुई इस रत्न भूषित पृथ्वी से कर वसूल किया था, कर्ण ने ही दूसरे राष्ट्रों में जिसकी आज्ञा का प्रसार किया था, जिस राजा को राज्य शासन करते समय कभी हथियार उठाने का कष्ट नहीं सहन करना पड़ा था, जो हस्तिनापुर में ही रह कर अपने कल्याणमय निष्कण्टक राज्य का निरन्तर पालन करता था, जिसने अपने ऐश्वर्य से कुबेर को भी भुला दिया था, राजन! पृथ्वीनाथ! एक घर से दूसरे घर में जाने अथवा देवालय में प्रवेश करने के हेतु जिसके लिये सुवर्णमय मार्ग बनाया गया था, जो इन्द्र के समान बलवान भूपाल ऐरावत के समान कान्तिमान गजराज पर आरूढ़ हो महान ऐश्वर्य के साथ यात्रा करता था, उसी इन्द्र तुल्य तेजस्वी राजा दुर्योधन को अत्यन्त घायल हो पांव-पयादे ही पृथ्वी पर अकेला खड़ा देख मुझे महान क्लेश हुआ।

ऐसे प्रतापी और सम्पूर्ण जगत के स्वामी इस भूपाल को जो अनुपम विपत्ति प्राप्त हुई, उसे देखकर कहना पड़ता है कि ‘विधाता ही सबसे बड़ा बलवान है’। तत्पश्चात मैंने युद्ध में अपने पकड़े जाने और व्यास जी की कृपा से जीवित छूटने का सारा समाचार उससे कह सुनाया। उसने दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार कर सचेत होने पर मुझसे अपने भाईयों तथा सम्पूर्ण सेनाओं का समाचार पूछा।

मैंने भी जो कुछ आंखो देखा था, वह सब कुछ उसे इस प्रकार बताया-‘नरेश्वर! तुम्हारे सारे भाई मार डाले गये और समस्त सेना का भी संहार हो गया। रणभूमि से प्रस्थान करते समय व्यास जी ने मुझ से कहा था कि ‘तुम्हारे पक्ष में तीन ही महारथी बच गये हैं’। यह सुनकर आपने पुत्र ने लंबी सांस खींच कर बारंबार मेरी ओर देखा और हाथ से मेरा स्पर्श करके इस प्रकार कहा- ‘संजय! इस संग्राम में तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मेरा आत्मीय जन सम्भवतः जीवित नहीं है; क्योंकि मैं यहाँ दूसरे किसी स्वजन को देख नहीं रहा हूँ। उधर पाण्डव अपने सहायकों से सम्पन्न हैं। ‘संजय! तुम प्रज्ञाचक्षु ऐश्वर्यशाली महाराज से कहना कि ‘आपका पुत्र दुर्योधन वैसे पराक्रमी सुहृदों, पुत्रों और भ्राताओं से हीन होकर सरोवर में प्रवेश कर गया है। जब पाण्डवों ने मेरा राज्य हर लिया, तब इस दयनीय दशा में मेरे-जैसा कौन पुरुष जीवन धारण कर सकता है ?’ संजय! तुम ये सारी बातें कहना और यह भी बताना कि ‘दुर्योधन उस महासंग्राम से जीवित बच कर पानी से भरे हुए इस सरोवर में छिपा है और उसका सारा शरीर अत्यन्त घायल हो गया है’’।

महाराज! ऐसा कहकर राजा दुर्योधन ने उस महान सरोवर में प्रवेश किया और माया से उसका पानी बांध दिया। जब दुर्योधन सरोवर में समा गया, उसके बाद अकेले खड़े हुए मैंने अपने पक्ष के तीन महारथियों को वहाँ उपस्थित देखा, जो एक साथ उस स्थान पर आ पहुँचे थे। उन तीनों के घोड़े थक गये थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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