अष्टात्रिंश (38) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! मूर्ख उत्तर एक साधारण कोटि का मनुष्य था और छद्म वेशधारी सव्यसाची अर्जुन असाधारण वीर थे। अतः उनके प्रभाव को न जानने के कारण वह मूर्खतावश उनके पास रहकर भी उन्हीं के देखते - देखते यों विलाप करने लगा-। ‘बृहनले! मेरे पिता सूने नगर में उसकी रक्षा के लिये मुझे अकेला रखकर स्वयं सारी सेना साथ ले त्रिगर्तों से युद्ध करने के लिये गये हैं। मेरे पास यहाँ कोई सैनिक नहीं है। मैं अकेला बालक हूँ और मैंने अस्त्र विद्या में अभी अधिक परिश्रम भी नहीं किया है। ऐसी दशा में अस्त्र शस्त्रों के ज्ञाता और प्रौढ़ अवस्था वाले इल बहुसंख्यक कौरवों का सामना मैं नहीं कर सकूँगा। अतः तुम रथ लेकर लौट चलो’। बृहन्नला ने कहा -! राजकुमार! तुम भय के कारण दीन होकर शत्रुओं का हर्ष बढ़ा रहे हो। अभी तो शत्रुओं ने युद्ध के मैदान में कोई पराक्रम भी प्रकट नहीं किया है। तुमने स्वयं ही कहा कि मुझे कौरवों के पास ले चलो; अतः जहाँ ये बहुत सी ध्वजाएँ फहरा रही हैं? वहीं तुम्हें ले चलूँगी। महाबाहो! जैसे गीध मांस पर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार जो गौओं को लूटने के लिये यहाँ आये हैं, उन आततायी कौरवों के बीच तुम्हें ले चलती हूँ। यदि ये पृथ्वी के लिये भी युद्ध ठानेंगे तो उसमें भी मैं तुम्हें ले चलूँगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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