एकोनशततम (99) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकोनशततम अध्याय: श्लोक 53-71 का हिन्दी अनुवाद
लोमश जी कहते हैं– राजन्! इतना सुनते ही श्रीरामचन्द्र जी मानो क्रोध से प्रज्वलित हो उठे और बोले- ‘भृगुनन्दन! तुम बड़े घमण्डी हो। मैं तुम्हारी कठोर बातें सुनता हूँ, फिर क्षमा कर लेता हूँ। तुमने अपने पितामह ऋचीक के प्रभाव से क्षत्रियों को जीतकर विशेष तेज प्राप्त किया है, निश्चय ही इसीलिये मुझ पर आक्षेप करते हो। लो! मैं तुम्हे दिव्यदृष्टि देता हूँ। उसके द्वारा मेरे यथार्थ स्वरूप का दर्शन करो।‘ तब भृगुवंशी परशुराम जी श्रीराम जी के शरीर में बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, साध्य देवता, उनचास मरुद्गण, पितृगण, अग्रिदेव, राक्षस, यक्ष, नदियाँ, तीर्थ, सनातन ब्रह्मभूत बालखिल्य ऋष, देवर्षि, सम्पूर्ण समुद्र, पर्वत, उपनिषदों सहित वेद, वषकार, यज्ञ, साम और धनुर्वेद, इन सभी को चेतनरूप धारण किये हुए प्रत्यक्ष देखा। भरतनन्दन युधिष्ठिर! मेघों के समूह, वर्षा और विद्युत का भी उनके भीतर दर्शन हो रहा था। तदनन्तर भगवान विष्णुरूप श्रीरामचन्द्र जी ने उस बाण को छोड़ा। भारत! उस समय सारी पृथ्वी बिना बादल की बिजली और बड़ी-बड़ी उल्काओं से व्याप्त-सी हो उठी। बड़े जोर की आँधी उठी और सब और धूल की वर्षा होने लगी। फिर मेघों की घटा घिर आयी और भूतल पर मूसलाधार वर्षा होनी लगी। बारबार भूकम्प होने लगा। मेघगर्जन तथा अन्य भयानक उत्पातसूचक शब्द गूंजने लगे। श्रीरामचन्द्र जी की भुजाओं से प्रेरित हुआ वह प्रज्वलित बाण परशुराम जी को व्याकुल करके केवल उनके तेज को छीनकर पुन: लौट आया। परशुराम जी एक बार मूर्च्छित होकर जब पुन: होश में आये, तब मरकर जी उठे हुए मनुष्य की भाँति उन्होंने विष्णुतेज धारण करने वाले भगवान श्रीराम को नमस्कार किया। तत्पश्चात भगवान विष्णु श्रीराम की आज्ञा लेकर वे पुन: महेन्द्र पर्वत पर चले गये। वहाँ भयभीत और लज्जित हो महान् तपस्या में संलग्र होकर रहने लगे। तदनन्तर एक वर्ष व्यतीत होने पर तेजोहीन और अभिमानशून्य होकर रहने वाले परशुराम को दु:खी देखकर उनके पितरों ने कहा। पितर बोले– 'तुमने भगवान विष्णु के पास जाकर जो बर्ताव किया है, वह ठीक नहीं था। वे तीनों लोकों में सर्वदा पूजनीय और माननीय हैं। बेटा! अब तुम वधूसर नामक पुण्यमयी नदी के तट पर जाओ। वहाँ तीर्थों में स्नान करके पूर्ववत् अपना तेजोमय शरीर पुन: प्राप्त कर लोगे। राम! वह दीप्तोदक नामक तीर्थ है, जहाँ देवयुग में तुम्हारे प्रपितामह भृगु ने उत्तम तपस्या की थी।' कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! पितरों के कहने से परशुराम जी ने वैसा ही किया। पाण्डुनन्दन! इस तीर्थ में नहाकर पुन: उन्होंने अपना तेज प्राप्त कर लिया। तात महाराज युधिष्ठिर! इस प्रकार पूर्वकाल में अनायास ही महान् कर्म करने वाले परशुराम विष्णुस्वरूप श्रीरामचन्द्र जी से भिड़कर इस दशा को प्राप्त हुए थे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में परशुराम के तेज की हानि विषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज