महाभारत वन पर्व अध्याय 47 श्लोक 20-35

सप्तचत्वारिंश (47) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 20-35 का हिन्दी अनुवाद


‘द्विजश्रेष्ठ! वे भगवान् श्रीहरि हमारा महान् कार्य सिद्ध कर सकते हैं। कुन्तीकुमार अर्जुन से भी हमारा कार्य सिद्ध हो सकता है। यदि श्रीकृष्ण और अर्जुन किसी महायुद्ध में एक-दूसरे से मिल जायें तो वे दोनों एक साथ होकर महान् से महान् कार्य सिद्ध कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं है। भगवान् श्रीकृष्ण तो दृष्टिनिक्षेपमात्र से ही महान् कुण्ड में निवास करने वाले नागों की भाँति समस्त ‘निवातकवच’ नामक दानवों को उनके अनुयायियों सहित मार डालने में समर्थ हैं। परन्तु किसी छोटे कार्य के लिये भगवान् मधुसूदन को सूचना देनी उचित नहीं जान पड़ती। वे तेज के महान् राशि हैं; यदि प्रज्वलित हों तो सम्पूर्ण जगत् को भस्म कर सकते हैं। ये शूरवीर अर्जुन अकेले ही उन समस्त निवातकवचों का संहार करने में समर्थ हैं। उन सब को युद्ध में मारकर ये फिर मनुष्य लोक को लौट जायेंगे।

मुने! आप मेरे अनुरोध से कृपया भूलोक में जाइये और काम्यकवन में निवास करने वाले युधिष्ठिर से मिलिये। वे बड़े धर्मात्मा और सत्यपवित्र हैं। उनसे मेरा यह संदेश कहियेगा- ‘राजन्! आप अर्जुन के वापस लौटने के विषय में उत्कण्ठित न हों। वे अस्त्र विद्या सीखकर शीघ्र ही लौट आयेंगे। जिसका बाहुबल पूर्ण अस्त्र शिक्षा के अभाव से त्रुटिपूर्ण हो तथा जिसने अस्त्र विद्या का पूर्ण ज्ञान न प्राप्त किया हो, वह युद्ध में भीष्म-द्रोण आदि का सामना नहीं कर सकता। महाबाहु महामना अर्जुन अस्त्र विद्या की पूरी शिक्षा पा चुके हैं। वे दिव्य नृत्य, वाद्य एवं गीत की कला में भी पारंगत हो गये हैं। मनुजेश्वर! शत्रुदमन! आप भी अपने सभी भाइयों के साथ पवित्र तीर्थों का दर्शन कीजिये। राजेन्द्र! पुण्यतीथों के स्नान करके पाप-ताप से रहित हो सुखी एवं निष्कलंक जीवन बिताते हुए आप राज्य भोग करेंगे। द्विजश्रेष्ठ! आप भी भूतल पर विचरने वाले राजा युधिष्ठिर की रक्षा करते रहें; क्योंकि आप तपोबल से सम्पन्न हैं। पर्वतों के दुर्गम स्थानों में तथा ऊंची-नीची भूमियों में भयंकर राक्षस निवास करते हैं; उनसे आप भाइयों सहित युधिष्ठिर की रक्षा कीजियेगा’।

महेन्द्र के ऐसा कहने पर अर्जुन ने भी विनीत होकर लोमश मुनि से कहा- ‘मुने! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की भाइयों सहित रक्षा कीजिये। साधुशिरोमणे! महामुने! आपसे सुरक्षित रहकर राजा युधिष्ठिर तीथों में भम्रण करें और दान दें-ऐसी कृपा कीजिये’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ‘बहुत-अच्छा’ कहकर महातपस्वी लोमश जी ने उनका अनुरोध मान लिया और काम्यकवन में जाने के लिये भूलोक की ओर प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने शत्रुदमन कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिर को भाइयों तथा तपस्वी मुनियों से घिरा हुआ देखा।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमनपर्व में लोमशगमन विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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