महाभारत वन पर्व अध्याय 43 श्लोक 20-32

त्रिचत्‍वारिंश (43) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद


तत्पश्चात् इन्द्र ने अर्जुन का हाथ पकड़कर अपने देवर्षिगणसेवित पवित्र सिंहासन पर उन्हें पास ही बिठा लिया। तब शत्रु वीरों का संहार करने वाले देवराज ने विनीतभाव से आये हुए अर्जुन का मस्तक सूंघा और उन्हें अपनी गोद में बिठा लिया। उस समय सहस्रनेत्रधारी देवेन्द्र के आदेश से उनके सिंहासन पर बैठे हुए अपरिमित प्रभावशाली कुन्तीकुमार दूसरे इन्द्र की भाँति शोभा पा रहे थे। इसके बाद वृत्रासुर के शत्रु इन्द्र ने पवित्र गन्धयुक्त हाथ से बड़े प्रेम के साथ अर्जुन को सब प्रकार से आश्वासन देते हुए उनके सुन्दर मुख का स्पर्श किया। अर्जुन की सुन्दर विशाल भुजाएं प्रत्यंचा खींचकर बाण चलाने की रगड़ से कठोर हो गयी थीं। वे देखने में सोने के खंभे जैसी जान पड़ती थीं। देवराज उन भुजाओं पर धीरे-धीरे हाथ फेरने लगे।

वज्रधारी इन्द्र वज्रधारणजनित चिह्न से सुशोभित दाहिने हाथ से अर्जुन को बार-बार सान्त्वना देते हुए उनकी भुजाओं को धीरे-धीरे थपथपाने लगे। सहस्र नयनों से सुशोभित वृत्रसूदन इन्द्र निद्राविजयी अर्जुन को मुसकारते हुए से देख रहे थे। उस समय इन्द्र की आंखें हर्ष से खिल उठी थीं। वे उन्हें देखने से तृप्त नहीं होते थे। जैसे कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उदित हुए सूर्य और चन्द्रमा आकाश की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार एक सिंहासन पर बैठे हुए देवराज इन्द्र और कुन्तीकुमार अर्जुन देवसभा को सुशोभित कर रहे थे। उस समय वहाँ साभगान में निपुण तुम्बुरू आदि श्रेष्ठ गन्धर्वगण सामगान के नियमानुसार अत्यन्त मधुर स्वर में गाथागान करने लगे।

घृताची, मेनका, पूर्वचित्ति, स्वयंप्रभा, उर्वशी, मिश्रकेशी, दण्डगौरी, वरूथिनी, गोपाली, सहजन्या, कुम्भ योनि, प्रजागरा, चित्रसेना, चित्रलेखा, सहा और मधुर स्वरा-ये तथा और भी सहस्रों अप्सराएं वहाँ इन्द्रसभा में भिन्न-भिन्न स्थानों पर नृत्य करने लगीं। वे कमललोचना अप्सराएं सिद्ध पुरुषों के भी चित्त को प्रसन्न करने में संलग्न थीं। उनके कटि-प्रदेश ओर नितम्ब विशाल थे। नृत्य करते समय उनके उन्नत स्तन कम्पमान हो रहे थे। उनके कटाक्ष, हाव-भाव तथा माधुर्य आदि मन, बुद्धि एवं चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियों का अपहरण कर लेते थे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकाभिगमन पर्व में इन्द्रसभादर्शन विषयक तैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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