त्रिनवत्यधिकद्विशततम (293) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रिनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 19-35 श्लोक का हिन्दी अनुवाद
भरतश्रेष्ठ! अश्वपति की पत्नी मालव देश की राजकुमारी थीं। उनका वह गर्भ आकाश में शुक्लपक्षीय चन्द्रमा की भाँति दिनोंदिन बढ़ने लगा। समय प्राप्त होने पर महारानी ने एक कमलनयनी कन्या को जन्म दिया तथा नृपश्रेष्ठ अश्वपति ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उसके जातकर्म आदि संस्कार सम्पन्न करवाये। सावित्री ने प्रसन्न होकर उस कन्या को दिया था तथा गायत्री मन्त्र द्वारा आहुति देने से ही सावित्री देवी प्रसन्न हुई थीं, अतः ब्राह्मणों तथा पिता ने उस कन्या का नाम ‘सावित्री’ ही रक्खा। वह राजकन्या मूर्तिमती लक्ष्मी के समान बढ़ने लगी और यथासमय उसने युवावस्था में प्रवेश किया। उसके शरीर का कटिभाग परम सुन्दर तथा नितम्ब देश पृथुल था। वह सुवर्ण की बनी हुई प्रतिमा-सी जान पड़ती थी। उसे देखकर सब लोग यही मानते थे कि यह कोई देवकन्या आ गयी है। उसके नेत्रयुगल विकसित नील कमलदल के समान मनोहर थे। वह अपने तेज से प्रज्वलित-सी जान पड़ती थी। उसके तेज से प्रतिहत हो जाने के कारण कोई भी राजा या राजकुमार उसका वरण नहीं कर सका। एक दिन किसी पर्व के अवसर पर उपवासपूर्वक सिर से स्नान करके सावित्री देवता के दर्शन के लिये गयी और विधिपूर्वक अग्नि में आहुति दे उसने ब्राह्मणों से स्वस्तिवचन कराया। तदनन्तर इष्टदेवता का प्रसाद लेकर मूर्तिमती लक्ष्मी देवी के समान सुशोभित होती हुई वह अपने महात्मा पिता के समीप गयी।। पहले प्रसाद आदि निवेदन करके उसने पिता के चरणों में प्रणाम किया। फिर वह सुन्दरी कन्या हाथ जोड़कर पिता के पार्श्वभाग में खड़ी हो गयी। अपनी देवस्वरूपिणी पुत्री को युवावस्था में प्रविष्ट हुई देख और अभी तक इसके लिये किसी वर ने याचना नहीं की, यह सोचकर मद्रनरेश को बड़ा दुःख हुआ। राजा बोले- बेटी! अब किसी वर के साथ तेरा ब्याह कर देने का समय आ गया है, परंतु (तेरे तेज से प्रतिहत हो जाने के कारण) कोई भी मुझसे तुझे माँग नहीं रहा है। इसलिये तू स्वयं ही ऐसे वर की खोज कर ले, जो गुणों में तेरे समान हो। जिस पुरुष को तू पतिरूप में प्राप्त करना चाहे, उसका मुझे परिचय दे देना; फिर मैं सोच-विचारकर उसके साथ तेरा ब्याह कर दूँगा। तू मनोवान्छित वर का वरण कर ले। कल्याणि! मैंने ब्राह्मणों के मुख से धर्मशास्त्र की जो बात सुनी है, उसे बता रहा हूँ, तू भी सुन ले- ‘विवाह के योग्य हो जाने पर कन्या का दान न करने वाला पिता निन्दनीय है। ऋतुकाल में पत्नी के साथ समागम न करने वाला पति निन्दा का पात्र है तथा पति के मर जाने पर विधवा माता की रक्षा न करने वाला पुत्र धिक्कार के योग्य है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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