त्र्यशीत्यधिकद्वशततम (283) अध्याय: वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्र्यशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद
तब वहाँ बहुत-से दूसरे-दूसरे वानर, जो बड़े अभिमानी थे, कहने लगे- ‘हम तो समुद्र को लाँघ जाने में समर्थ हैं, परंतु सब नहीं लाँघ सकते’। कुछ वानर बड़ी-बड़ी नावों के द्वारा समुद्र के पार जाने का निश्चय प्रकट करने लगे। कुछ ने नाव-डोंगी आदि विविध साधनों द्वारा पार जाने की बात कही। परंतु श्रीरामचन्द्र जी ने उनकी यह सलाह मानने से इनकार कर दिया और सबको सान्त्वना देते हुए कहा-। ‘वीरो! सभी वानरों में इतनी शक्ति नहीं है कि वे सौ योजन विस्तृत समुद्र को लाँघ सकें; अतः तुम लोगों का यह निर्णय सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में ग्राह्य नहीं है। इतनी बड़ी सेना को पार उतारने के लिये हम लोगों के पास अधिक नौकाएँ भी नहीं हैं। (यदि कहें, व्यापारियों के जहाजों से काम लिया जाये, तो) मेरे जैसा पुरुष अपने स्वार्थ के लिये व्यापारियों के व्यवसाय को हानि कैसे पहुँचा सकता है? इसके सिवा नौका आदि से यात्रा करने पर हमारी सेना छिट-फुट होकर बहुत दूर तक फैल जायेगी। उस दशा में अवसर पाकर शत्रु इसका नाश भी कर सकता है। इसीलिये डोंगी और नाव आदि पर बैठकर उतरने की बात मुझे ठीक नहीं जँचती है। मैं तो किसी उपाय से इस समुद्र की आराधना आरम्भ करूँगा। इसके तट पर अन्न-जल छोड़कर धरना दूँगा। इससे यह अवश्य मुझे दर्शन देगा तथा कोई मार्ग दिखाई देगा। यदि यह स्वयं प्रकट होकर कोई मार्ग नहीं दिखायेगा तो मैं अग्नि और वायु से भी अधिक तेजस्वी तथा कभी न चूकने वाले महान् दिव्यास्त्रों द्वारा इसे जलाकर भस्म कर डालूँगा’। ऐसा कहकर लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्र जी ने आचमन करके समुद्र के तट पर कुश की चटाई बिछाकर उस पर लेटकर विधिपूर्वक धरना दे दिया। तब नदों और नदियों के स्वामी श्रीमान् समुद्रदेव ने जल-जन्तुओं के साथ प्रकट होकर स्वप्न में श्रीरामचन्द्र जी को दर्शन दिया। वह सैंकड़ों रत्न के आकरों से घिरा हुआ था। उसने ‘कौसल्यानन्दन’ कहकर श्रीराम को सम्बोधित किया और मधुर वाणी में इस प्रकार कहा- ‘नरश्रेष्ठ! कहो, मैं यहाँ तुम्हारी क्या सहायता करूँ? सगरपुत्रों से संवर्धित होने के कारण मैं भी इक्ष्वाकुवंशीय तथा तुम्हारा भाई-बन्धु हूँ’। यह सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने उससे कहा- ‘नद-नदीश्वर! मैं अपनी सेना के लिये तुम्हारे द्वारा दिया हुआ मार्ग चाहता हूँ, जिससे जाकर पुलत्स्यकुलांगार दशमुख रावण को मार सकूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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