महाभारत वन पर्व अध्याय 233 श्लोक 32-48

त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततम (233) अध्‍याय: वन पर्व (द्रौपदीसत्‍यभामा संवाद पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 32-48 का हिन्दी अनुवाद


‘सुन्‍दरी! शास्‍त्रों में स्त्रियों के लिये जिन कर्तव्‍यों का उपदेश किया गया है, उन सब का मैं नियमपूर्वक पालन करती हूँ। अपने अंगों को वस्त्राभूषणों से विभूषित रखकर पूरी सावधानी के साथ मैं पति के प्रिय एवं हितसाधन में संलग्‍न रहती हूँ। मेरी सास ने अपने परिवार के लोगों के साथ बर्ताव में लाने योग्‍य जो धर्म पहले मुझे बताये थे, उन सब का मैं निरन्‍तर आलस्‍यरहित होकर पालन करती हूँ। मैं दिन-रात आलस्‍य त्‍याग कर भिक्षा-दान, बलिवैश्वदेव, श्राद्ध, पर्वकालोचित स्‍थालीपाकयज्ञ, मान्‍य पुरुषों का आदर-सत्‍कार, विनय, नियम तथा अन्‍य जो-जो धर्म मुझे ज्ञात हैं, उन सबका सब प्रकार से उद्यत होकर पालन करती हूँ। मेरे पति बड़े ही सज्‍जन और मृदुल स्‍वभाव के हैं। सत्यवादी तथा सत्‍यधर्म का निरन्‍तर पालन करने वाले हैं; तथापि क्रोध में भरे हुए विषैले सर्पों से जिस प्रकार लोग डरते हैं, उसी प्रकार मैं अपने पतियों से डरती हुई उनकी सेवा करती हूँ। मैं यह मानती हूँ कि पति के आश्रय में रहना ही स्त्रियों का सनातन धर्म है।

पति ही उनका देवता है और पति ही उनकी गति है। पति के सिवा नारी का दूसरा कोई सहारा नहीं है, ऐसे पतिदेवता का भला कौन स्‍त्री अप्रिय करेगी। पतियों के शयन करने से पहले मैं कभी शयन नहीं करती, उनसे पहले भोजन नहीं करती, उनकी इच्‍छा के विरुद्ध कोई आभूषण नहीं पहनती, अपनी सास की कभी निन्‍दा नहीं करती और अपने आपको सदा नियन्‍त्रण में रखती हूँ। सौभाग्‍यशालिनी सत्‍यभामे! सावधानी से सर्वदा सबेरे उठकर समुचित सेवा के लिये सन्नद्ध रहती हूँ। गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा से ही मेरे पति मेरे अनुकूल रहते हैं। मैं वीरजननी सत्‍यवादिनी आर्या कुन्ती देवी की भोजन, वस्‍त्र और जल आदि से सदा स्‍वयं सेवा करती हूँ। वस्‍त्र, आभूषण और भोजन आदि में मैं कभी सास की अपेक्षा अपने लिये कोई विशेषता नहीं रखती। मेरी सास कुन्‍ती देवी पृथ्‍वी के समान क्षमाशील हैं। मैं कभी उनकी निन्‍दा नहीं करती। पहले महाराज युधिष्ठिर के महल में प्रतिदिन आठ हजार ब्राह्मण सोने की थालियों में भोजन किया करते थे।

महाराज युधिष्ठिर के यहाँ अट्ठासी हजार ऐसे स्‍नातक गृहस्‍थ थे, जिनका वे भरण-पोषण करते थे। उनमें से प्रत्‍येक की सेवा में तीस-तीस दासियां रहती थीं। इनके सिवा दूसरे दस हजार और उर्ध्‍वरेता यति उनके यहाँ रहते थे, जिनके लिये सुन्‍दर ढंग से तैयार किया हुआ अन्‍न सोने की थालियों में परोसकर पहुँचाया जाता था। मैं उन सब वेदपाठी ब्राह्मणों को अग्रहार (बलिवैश्‍वदेव के अन्‍त में अतिथि को दिये जाने वाले प्रथम अन्‍न) का अर्पण करके भोजन, वस्‍त्र और जल के द्वारा उनकी यथायोग्‍य पूजा करती थी। कुन्तीनन्‍दन महात्‍मा युधिष्ठिर के एक लाख दासियां थीं, जो हाथों में शंख की चूड़ियां, भुजाओं में बाजूबंद और कण्‍ठ में सुवर्ण के हार पहनकर बड़ी सजधज के साथ रहती थीं। उनकी मालाएं तथा आभूषण बहुमूल्‍य थे, अंगकान्ति बड़ी सुन्‍दर थी। वे चन्‍दनमिश्रित जल से स्‍नान करतीं और चन्‍दन का ही अंगराग लगाती थीं, मणि तथा सुवर्ण के गहने पहना करती थीं। नृत्‍य और गीत की कला में उनका कौशल देखने ही योग्‍य था। उन सबके नाम, रूप तथा भोजन-आच्‍छादन आदि सभी बातों की मुझे जानकारी रहती थी। किसने क्‍या काम किया और क्‍या नहीं किया? यह बात भी मुझसे छिपी नहीं रहती थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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