महाभारत वन पर्व अध्याय 221 श्लोक 15-28

एकविंशत्‍यधिकद्विशततम (221) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद


मनु (भानु) की ही एक तीसरी पत्‍नी थी, जिसका नाम था निशा। उसने एक कन्‍या और दो पुत्रों को जन्‍म दिया। (कन्‍या का नाम ‘रोहिणी’ तथा) पुत्रों के नाम थे- अग्नि और सोम, इनके सिवा, निशा ने पांच अग्निस्‍वरूप पुत्र और भी उत्‍पन्न किये। (जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-वैश्वानर, सन्निहित, कपिल और अग्रणी)। चातुर्मास्‍य यज्ञों में प्रधान हविष्‍य द्वारा पर्जन्‍य सहित जिसकी पूजा की जाती है, वे कान्तिमान् वेश्वानर नामक अग्नि (मनु के प्रथम पुत्र) हैं। जो वेदों में ‘सम्‍पूर्ण जगत् के प्रति’ कहे गये हैं, वे विश्वपति नामक अग्नि मनु के द्वितीय पुत्र हैं। उन्‍हीं के प्रभाव से हविष्‍य की सुन्‍दर भाव से आहुति-क्रिया सम्‍पन्न होती है; अत: वे परम स्विष्टकृत (उत्तम अभीष्‍ट पूर्ति करने वाले) कहे जाते हैं।

मनु की कन्‍या भी 'स्विष्टकृत' ही मानी गयी है। उसका नाम रोहिणी था; वह मनु की कुमारी पुत्री किसी अशुभ कर्म के कारण हिरण्यकशिपु की पत्नी हुई थी। वास्‍तव में ‘मनु’ ही वह्नि है और वे ही ‘प्रजापति’ कहे गये हैं। जो देहधारियों के प्राणों का आश्रय लेकर उनके शरीर को कार्य में प्रवृत्त करते हैं, उनका नाम है, संनिहित’ अग्रि। ये मनु के तीसरे पुत्र हैं। इनके द्वारा शब्‍द तथा रूप को ग्रहण करने में सहायता मिलती है। जो दीप्तिमान् महापुरुष, शुक्‍ल और कृष्‍ण गति के आधार हैं, जो अग्नि का धारण-पोषण करते हैं, जिसमें किसी प्रकार का कल्‍मष अर्थात् विकार नहीं है तथापि जो समस्‍त विकारस्‍वरूप जगत् के कर्ता हैं, जो सांख्‍ययोग के प्रवर्तक हैं, वे क्रोध स्‍वरूप अग्नि के आश्रय कपिल नामक अग्नि हैं। (ये मनु के चौथे पुत्र हैं)। मनुष्‍य आदि समस्‍त भूत-प्राणि सर्वदा भाँति–भाँति के कर्मों में जिनके द्वारा सब भूतों के लिये अन्न का अग्रभाग अर्पण करते हैं, वे अग्रणी नामक अग्नि (मनु के पांचवें पुत्र) कहलाते हैं।

मनु ने अग्निहोत्र कर्म में की हुई त्रुटि के प्रायश्चित (समाधान) के लिये इन लोकविख्‍यात तेजस्‍वी अग्नियों की सृष्टि की, जो पूर्वोक्त अग्नियों से भिन्न हैं। यदि किसी प्रकार हवा के चलने से अग्नियों का परस्‍पर स्‍पर्श हो जाये, तो अष्‍टाकपाल (आठ कपालों में संस्‍कारपूर्वक तैयार किये हुए) पुरोडाश के द्वारा शुचि नामक अग्नि के लिये इष्टि करनी (आहुति देनी) चाहिये। जब दक्षिणाग्नि का गार्हपत्‍य तथा आह्वनीय नामक दो अग्नियों से संसर्ग किये हुए पुरोडाश द्वारा ‘वीति’ नामक अग्नि के लिये आहुति देनी चाहिये। यदि ग्रहस्थित अग्नियों का दावानल से संसर्ग हो जाये, तो मिट्टी के आठ पुरवों में संस्कारपूर्वक तैयार किये हुए पुरोडास द्वारा 'वीति' नामक अग्नि को आहुति देनी चाहिए। यदि अग्निहोत्र सम्‍बन्‍धी अग्नि को कोई रजस्‍वला स्‍त्री छू दे, तो वसुमान् अग्रि के लिये मिट्टी के आठ पुरवों में संस्‍कृत चरु द्वारा आहुति देनी चाहिये। यदि किसी प्राणी का मृत्‍युसूचक विलाप आदि सुनायी दे अथवा कुक्‍कुर आदि पशु उस अग्नि का स्‍पर्श कर ले, उस दशा में मिट्टी के आठ पुरवों में संस्‍कृत पुरोडाश द्वारा सुरभिमान नामक अग्नि की प्रसन्नता के लिये होम करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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