महाभारत वन पर्व अध्याय 214 श्लोक 16-28

चतुर्दशाधिकद्विशततम (214) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुर्दशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद


उन वृद्धों ने उत्तर दिया- ब्रह्मन्! इस घर में हम दोनों सकुशल हैं। हमारे सेवक तथा कुटुम्‍ब के लोग भी कुशल से हैं। भगवन्! अपना समाचार कहें, आप यहाँ सकुशल पहुँच गये न? किसी विघ्न-बाधा का सामना तो नहीं करना पड़ा?

मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- राजन्! तब कौशिक ब्राह्मण ने उन्‍हें प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया- ‘हां, मुझे कोई कष्‍ट नहीं हुआ।'

तदनन्‍तर धर्मव्‍याध ने अपने पिता-माता की ओर देखते हुए कौशिक ब्राह्मण से कहा। धर्मव्‍याध बोला- भगवन्! ये माता-पिता ही मेरे प्रधान देवता हैं। जो कुछ देवताओं के लिये करना चाहिये, वह मैं इन्‍हीं दोनों के लिये करता हूँ। जैसे समस्‍त संसार के लिये इन्द्र आदि तैंतीस करोड़ देवता पूजनीय हैं, उसी प्रकार मेरे लिये ये दोनों बूढ़े माता-पिता ही आराधनीय हैं। द्विज लोग देवताओं के लिये जैसे नाना प्रकार के उपहार समर्पण करते हैं, उसी प्रकार मैं इनके लिये करता हूँ। इनकी सेवा में मुझे आलस्‍य नहीं होता।

ब्रह्मन्! ये माता-पिता ही मेरे सर्वश्रेष्‍ठ देवता हैं। मैं सदा फूल, फल तथा रत्‍नों से इन्‍हीं को संतुष्‍ट करता हूँ। विप्रवर! जिन्‍हें विद्वान् लोग ‘अग्नि’ कहते हैं, वे मेरे लिये ये ही हैं। चारों वेद और यज्ञ सब कुछ मेरे लिये ये माता-पिता ही हैं। मेरे प्राण, स्‍त्री, पुत्र और सुहृद सब इन्‍हीं की सेवा के लिये हैं। मैं स्‍त्री और पुत्रों के साथ प्रतिदिन इन्‍हीं की शुश्रूषा में लेगा रहता हूँ। द्विजश्रेष्‍ठ! मैं स्‍वयं ही इन्‍हें नहलाता हूं, इनके चरण धोता हूँ और स्‍वयं ही भोजन परोसकर इन्‍हें जिमाता हूँ। मैं वही बात बोलता हूं, जो इनके मन के अनुकूल हो, जो इन्‍हें प्रिय न लगे, ऐसी बात मुंह से कभी नहीं निकालता। इनको पसंद हो, तो मैं अधर्मयुक्‍त कार्य भी कर सकता हूँ। विप्रवर! इस प्रकार माता-पिता की सेवारूप धर्म को ही महान् मानकर मैं उसका पालन करता हूँ।

ब्रह्मन्! आलस्‍य छोड़कर मैं सदा इन्‍हीं दोनों की सेवा में लगा रहता हूँ। ब्राह्मणश्रेष्‍ठ! उन्नति चाहने वाले पुरुष के पांच ही गुरु हैं- पिता, माता, अग्नि, परमात्‍मा तथा गुरु। द्विजश्रेष्‍ठ! जो इन सबके प्रति उत्तम बर्ताव करेगा, उस ग्रहस्‍थ-धर्म का पालन करने वाले के द्वारा सदा सब अग्नियों की सेवा सम्‍पन्न होती रहेगी। यही सनातन धर्म है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेयसमस्‍यापर्व में ब्राह्मणव्‍याध संवाद विषयक दो सौ चौदहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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