महाभारत वन पर्व अध्याय 209 श्लोक 43-56

नवाधिकद्विशततक (209) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: नवाधिकद्विशततक अध्‍याय: श्लोक 43-56 का हिन्दी अनुवाद


जो संस्कारसम्‍पन्न, जितेन्द्रिय, शौचाचारपरायण और मन को काबू में रखने वाला है, उस बुद्धिमान पुरुष को इहलोक और परलोक में भी सुख की प्राप्ति होती है। ब्रह्मन्! अत: मनुष्‍य को चाहिये कि वह सतौरुषों के धर्म का पालन करे, शिष्‍ट पुरुषों के समान बर्ताव करे और जगत् में किसी भी प्राणी को कष्‍ट दिये बिना जिससे जीवन-निर्वाह हो सके, ऐसी आजीविका प्राप्‍त करने की इच्‍छा करे। संसार में बहुत-से वेदवेत्ता और शास्‍त्र-विचक्षण शिष्‍ट पुरुष विद्यमान हैं: उनके उपदेश के अनुसार स्‍वधर्म के पालनपूर्वक प्रत्‍येक कार्य करना चाहिये, इससे कर्मों का संकर नहीं हो पाता।

द्विजश्रेष्‍ठ! बुद्धिमान पुरुष धर्म से ही आनन्‍द मानता है, धर्म का ही आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करता है और धर्म से धर्म का ही आश्रय लेकर जीवन-नर्वाह करता है और धर्म से ही उपलब्‍ध किये हुए धन से धन का ही मूल सींचता है अर्थात् धर्म का पालन करता है। वह धर्म में ही गुण देखता है। इस प्रकार वह धर्मात्‍मा होता है, उसका अन्‍त:करण निर्मल हो जाता है तथा मित्रजनों से संतुष्‍ट होकर वह इहलोक और परलोक में भी आनन्दित होता है। सज्‍जनशिरोमणे! धर्मात्‍मा पुरुष श्‍ब्‍द, स्‍पर्श, रूप और प्रिय गन्‍ध-सभी प्रकार के विषय तथा प्रभुत्‍व भी प्राप्‍त करता है। उसकी यह स्थिति धर्म का ही फल मानी गयी है।

द्विजोत्तम! कोई-कोई धर्म के फलरूप से सांसारिक सुख को पाकर संतुष्‍ट नहीं होता। वह ज्ञानदृष्टि के कारण विषयभोग के सुख पाकर संतुष्‍ट नहीं होता। वह ज्ञानदृष्टि के कारण विषयभोग के सुख से तुप्ति-लाभ न करके निर्वेद (वैराग्‍य) को प्राप्‍त होता है। इस जगत् में ज्ञानदृष्टि से सम्‍पन्न पुरुष राग-द्वेष आदि दोषों का अनुसरण नहीं करता। उसे यथेष्‍ट वैराग्‍य होता है तथा वह कभी धर्म का त्‍याग नहीं करता है। सम्‍पूर्ण जगत् को नश्वर समझकर वह सबको त्‍यागने का प्रयत्‍न करता है। तत्‍पचात् उचित उपाय से मोक्ष के लिये सचेष्‍ट होता है। अनुपाय (प्रारब्‍ध आदि) का अवलम्‍बन करके बैठ नहीं रहता। इस प्रकार वह वैराग्‍य को अपनाता और पाप कर्म को छोड़ता जाता है। फिर सर्वथा धर्मात्‍मा हो जाता और अन्‍त में परम मोक्ष प्राप्‍त कर लेता है। जीव के कल्‍याण का साधन है तप और उसका मूल है शम (मनोनिग्रह) तथा दम (इन्द्रियसंयम)।

मनुष्‍य मन के द्वारा जिन-जिन अभीष्‍ट पदार्थों को पाना चाहता है, उन सबको वह उस तप के द्वारा प्राप्‍त कर लेता है। द्विजश्रेष्‍ठ! इन्द्रियसंयम, सत्‍यभाषण और मनोनिग्रह-इनके द्वारा मनुष्‍य ब्रह्म के परम पद को प्राप्‍त कर लेता है।

ब्राह्मण ने पूछा- उत्तम व्रत का पालन करने वाले व्‍याध! जिन्‍हें इन्द्रिय कहते हैं, वे कौन-कौन हैं? उनका निग्रह कैसे करना चाहिये? और उस निग्रह का फल क्‍या है? धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ व्‍याध! उन इन्द्रियों के निग्रह का फल कैसे प्राप्‍त होता है? मैं इस इन्द्रिय-निग्रहरूपी धर्म को यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ। तुम मुझे समझाओ।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेयसमस्‍यापर्व में ब्राह्मणव्‍याध संवाद विषयक दो सौ नौवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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