महाभारत वन पर्व अध्याय 204 श्लोक 20-39

चतुरधिकद्विशततक (204) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

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महाभारत: वन पर्व: चतुरधिकद्विशततक अध्‍याय: श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद


कुवलाश्व के पुत्रों ने सात दिनों तक खुदाई करने के बाद उस बालुकामय समुद्र में (छिपे हुए) महाबली धुन्‍धु को देखा। बालू के भीतर छिपा हुआ उसका शरीर विशाल एवं भयंकर था। भरतश्रेष्‍ठ! वह अपने तेज से सूर्य के समान उद्दीप्‍त हो रहा था। महाराज्! तदनन्‍तर धुन्‍धु पश्चिम दिशा को घेरकर सो गया। नृपश्रेष्‍ठ! उसकी कान्ति प्रलयकालीन अग्नि के समान जान पड़ती थी। उस समय राजा कुवलाश्व के पुत्रों ने सब ओर से घेरकर उस पर आक्रमण किया। तीखे बाण, गदा, मूसल, पट्टिश, परिघ, प्रास और चमचमाते हुए तेज धार वाले खड्ग-इन सबके द्वारा चोट खाकर महाबली धुन्‍धु क्रोधित हो गया और उनके चलाये हुए नाना प्रकार के अस्‍त्र-शस्‍त्रों को वह क्रोधी असुर खा गया। तत्‍पचात् उसने अपने मुंह से प्रलयकालीन अग्नि के समान आग की चिनगारियां उगलना आरम्‍भ किया और उन समस्‍त राजकुमारों को अपने तेज से जलाकर भस्‍म कर दिया।

नृपश्रेष्‍ठ! जैसे पूर्व काल में भगवान कपिल ने कुपित होकर राजा सगर के सभी पुत्रों को क्षणभर में दग्‍ध कर दिया था, उसी प्रकार क्रोध में भरे हुए धुन्‍धु ने, अपने मुख से आग प्रकट करके कुवलाश्व के पुत्रों को जला दिया। यह एक अद्भुत-सी घटना घटित हुई। भरतश्रेष्‍ठ! जब सभी राजकुमार धुन्‍धु की क्रोधाग्नि से दग्‍ध हो गये, तब महातेजस्‍वी राजा कुवलाश्व ने दूसरे कुम्‍भकर्ण के समान जगे हुए उस महाकाय दानव पर आक्रमण किया। महाराज्! उस समय धुन्‍धु के शरीर से बहुत-सा जल प्रवाहित होने लगा, किंतु राजा कुवलाश्व ने योगी होने के कारण योगबल से उस जलमय तेज को पी‍ लिया और जल प्रकट करके धुन्‍धु की मुखाग्नि को बुझा दिया।

राजेन्‍द्र! भरतश्रेष्‍ठ! तत्‍पचात् सम्‍पूर्ण लोकों के कल्‍याण के लिये राजर्षि कुवलाश्व ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके उस क्रूर पराक्रमी दैत्‍य धुन्‍धु को दग्‍ध कर दिया। इस प्रकार ब्रह्मास्त्र द्वारा शत्रुनाशक, देववैरी महान् असुर धुन्‍धु को दग्‍ध करके राजा कुवलाश्व दूसरे इन्द्र की भाँति शोभा पाने लगे। उस समय महामना राजा कुवलाश्व धुन्‍धु को मारने के कारण ‘धुन्‍धुमार’ नाम से विख्‍यात हो गये। उनका सामना करने वाला वीर कोई नहीं रह गया था। तदनन्‍तर महर्षियों सहित सम्‍पूर्ण देवता प्रसन्न होकर वहाँ आये और राजा से वर मांगने का अनुरोध करने लगे।

राजन्! उनकी बात सुनकर कुवलाश्व अत्यन्त प्रसन्न हुए और हाथ जोड़ मस्‍तक झुकाकर इस प्रकार बोले- ‘देवताओ! मैं श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों को धन दान करूँ, शत्रुओं के लिये दुर्जय बना रहूं, भगवान विष्‍णु के साथ सख्‍य-भाव से मेरा प्रेम हो और किसी भी प्राणी के प्रति मेरे मन में द्रोह न रह जाये। धर्म में मेरा सदा अनुराग हो और अन्‍त में मेरा स्‍वर्गलोक में नित्‍य निवास हो।' यह सुनकर देवताओं ने बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा कुवलाश्व से कहा- ‘महाराज! ऐसा ही होगा।' राजन्! तदनन्‍तर ऋषियों, गन्‍धर्वों और बुद्धिमान महर्षि उत्तंक ने भी नाना प्रकार के आशीर्वाद देते हुए राजा से वार्तालाप किया। युधिष्ठिर- इसके बाद देवता और महर्षि अपने-अपने स्‍थान को चले गये। उस युद्ध में राजा कुवलाश्व के तीन ही पुत्र शेष रह गये थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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