सप्तवत्यधिकशततम (197) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: सप्तवत्यधिकशततमो अध्याय: श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद
बाज बोला- 'राजन्! मैं आप से ऋषभकन्द नहीं मांगता और न मुझे इस कबूतर से अधिक कोई दूसरा मांस ही चाहिये। आज दूसरे पक्षियों के अभाव में यह कबूतर ही मेरे लिये देवताओं का दिया हुआ भोजन है। अत: यही मेरा आहार होगा। इसे ही मुझे दे दीजिये।' राजा ने कहा- 'बाज! उक्षा (ऋषभकन्द) अथवा वेहत नामक ओषधियां बड़ी पुष्टिकारक होती हैं। मेरे सेवक जाकर उनकी खोज करें और पर्याप्त मात्रा में भात के साथ उन्हें पकाकर तुम्हारे पास पहुँचा दें। भयभीत कपोत के बदले में मेरे पास से मिलने वाला यह उचित मूल्य होगा। इसे ले लो, किंतु इस कबूतर को न मारो। मैं अपने प्राण दे दूंगा, किंतु इस कबूतर को नही दूंगा। बाज! क्या तुम नहीं जानते, यह कितना सुन्दर स्वयं कैसा भोला-भाला है? सौम्य! अब तुम यहाँ व्यर्थ कष्ट न उठाओ। मैं इस कबूतर को किसी तरह तुम्हारे हाथ में नहीं दूंगा। बाज! जिस कर्म से शिबि देश के लोग प्रसन्न होकर मुझे साधुवाद देते हुए मेरी भूरि-भूरि प्रशंसा करें और जिससे मेरे द्वारा तुम्हारा भी प्रिय कार्य बन सके, वह बताओ। उसी के लिये मुझे आज्ञा दो। मैं वही करूँगा।' बाज बोला- 'राजन्! अपनी दायीं जांघ से उतना ही मांस काटकर दो, जितना इस कबूतर के बराबर हो सके। ऐसा करने से कबूतर की भली-भाँति रक्षा हो सकती है। इसी से शिबि देश की प्रजा आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा करेगी और मेरा भी प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायेगा।' तब राजा ने अपनी दायीं जांघ से मांस काटकर उसे तराजू के एक पलड़े पर रखा। किंतु कबूतर के साथ तौलने पर वही अधिक भारी निकला। राजा ने फिर दूसरी बार अपने शरीर का मांस काटकर रखा, तो भी कबूतर का ही पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार क्रमश: उन्होंन अपने सभी अंगों का मांस काट-काटकर तराजू पर चढ़ाया तो भी कबूतर ही भारी रहा। तब राजा स्वयं ही तराजू पर चढ़ गये। ऐसा करते समय उनके मन में क्लेश नहीं हुआ। यह घटना देखकर बाज बोल उठा- ‘हो गयी कबूतर की प्राण रक्षा।‘ ऐसा कहकर वह वहीं अन्तर्धान हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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