महाभारत वन पर्व अध्याय 192 श्लोक 21-38

द्विनवत्यधिकशततम (192) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्विनवत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद


उसे देखकर वे अपनी रानी के साथ उसी के तट पर खड़े हुए। उस समय राजा ने उस रानी से कहा- 'देवि! सावधानी के साथ इस बावली के जल में उतरो।' राजा की यह बात सुनकर उसने बावली में घुसकर गोता लगाया और फिर बाहर नहीं निकली। राजा ने उस बावली में रानी की बहुत खोज की, परंतु वह कहीं दिखायी न दी। तब उन्होंने बावली का सारा जल निकलवा दिया। इसके बाद एक बिल के मुंह पर कोई मेढक दीख पड़ा। इससे राजा को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने आज्ञा दे दी कि 'सर्वत्र मेढकों का वध किया जाये। जो मुझसे मिलना चाहे, वह मरे हुए मेढक का ही उपहार लेकर मेरे पास आवे'। इस आज्ञा के अनुसार चारों और मेढकों का भयंकर संहार आरम्भ हो गया। इससे सब दिशाओं के मेढकों के मन में भय समा गया। वे डरकर मण्डूकराज के पास गये और उनसे सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बता दिया। तब मण्डूकराज तपस्वी का वेष धारण करके राजा के पास गया और निकट पहुँचकर उससे इस प्रकार बोला- 'राजन्! आप क्रोध के वशीभूत न हों। हम पर कृपा करें। निरपराध मेढकों का वध न करावें।'

इस विषय में ये दो श्लोक भी प्रसिद्ध हैं- अच्युत! आप मेढकों को मारने की इच्छा न करें। अपने क्रोध को रोकें; क्योंकि अविवेक से काम लेने वाले मनुष्यों के धन की वृद्धि नष्ट हो जाती है। प्रतिज्ञा करें कि इन मेढकों को पाकर आप क्रोध नहीं करेंगे; यह अधर्म करने से आपको क्या लाभ है? मण्डूकों की हत्या से आपको क्या मिलेगा?' राजा का हृदय अपनी प्यारी रानी के विनाश के शोक से दग्ध हो रहा था। उन्होंने उपर्युक्त बातें कहने वाले मण्डूकराज से कहा- 'मैं क्षमा नहीं कर सकता। इन मेढकों को अवश्य मारूंगा। इन दुरात्माओं ने मेरी प्रियतमा को खा लिया है। अतः ये मेढक मेरे लिये सर्वथा वध्य ही हैं। विद्वन्! आप मुझे उनके वध से न रोकें'। राजा की बात सुनकर मण्डूकराज का मन और इन्द्रियां व्यथित हो उठीं। वह बोला- 'महाराज! प्रसन्न होइये। मेरा नाम आयु है। मैं मेढकों का राजा हूँ। जिसे आप अपनी प्रियतमा कहते हैं, वह मेरी ही पुत्री है। उसका नाम सुशोभना है। वह आपको छोड़कर चली गयी, यह उसकी दुष्टता है। उसने पहले भी बहुत-से राजाओं को धोखा दिया है'। तब राजा ने मण्डूकराज से कहा- 'मैं तुम्हारी उस पुत्री को चाहता हूं, उसे मुझे समर्पित कर दो'। पिता मण्डूकराज ने अपनी पुत्री सुशोभना महाराज परीक्षित् को समर्पित कर दी और उससे कहा- 'बेटी! सदा राजा की सेवा करती रहना।' ऐसा कहकर मण्डूकराज ने जब अपनी पुत्री के अपराध को याद किया, तब उसे क्रोध हो आया और उसने उसे शाप देते हुए कहा- 'अरी! तूने बहुत-से राजाओं को धोखा दिया है, इसलिये तेरी संतानें ब्राह्मण-विरोधी होंगी; क्योंकि तू बड़ी झूठी है'।

सुशोभना के रतिकाल सम्बन्धी गुणों ने राजा के मन को बांध लिया था। वे उसे पाकर ऐसे प्रसन्न हुए, मानो उन्हें तीनों लोकों का राज्य मिल गया हो। उन्होंने आनन्द के आंसू बहाते हुए मण्डूकराज को प्रणाम किया और उसका यथोचित सत्कार करते हुए हर्षगद्गद वाणी में कहा- 'मण्डूकराज! तुमने मुझ पर बड़ी कृपा की है'। तत्पश्चात् कन्या से विदा लेकर मण्डूकराज जैसे आया था, वैसे ही अपने स्थान को चला गया। कुछ काल के पश्चात् सुशोभना के गर्भ से राजा परीक्षित् के तीन पुत्र हुए- शल, दल और बल। इनमें शल सबसे बड़ा था। समय आने पर पिता ने शल का राज्याभिषेक करके स्वयं तपस्या में मन लगाये तपोवन को प्रस्थान किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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