अष्टाशीत्यधिकशततम (188) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: अष्टाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवाद
नरश्रेष्ठ! एक हजार चतुर्युग बीतने पर ब्रह्माजी का एक दिन होता है। यह सारा जगत् ब्रह्मा के दिनभर ही रहता है (और वह दिन समाप्त होते ही नष्ट हो जाता है।) इसी को विद्वान् पुरुष लोकों का प्रलय मानते हैं। भरतश्रेष्ठ! सहस्र युग की समाप्ति में जब थोड़ा-सा ही समय शेष रह जाता है, उस समय कलियुग के अन्तिम भाग में प्रायः सभी मनुष्य मिथ्यावादी हो जाते हैं। पार्थ! उस समय यज्ञ, दान और व्रत के प्रतिनिधि कर्म चालू हो जाते हैं अर्थात् यज्ञ, दान, तप मुख्य विधि से न होकर गौण विधि से नाममात्र होने लगते हैं। युग की समाप्ति के समय ब्राह्मण शूद्रों के कर्म करते हैं और शूद्र वैश्यों की भाँति धनोपार्जन करने लगते हैं अथवा क्षत्रियों के कर्म से जीविका चलाने लगते हैं। (सहस्र चतुर्युग के अन्तिम) कलियुग के अन्तिम भाग में ब्राह्मण यज्ञ, स्वाध्याय, दण्ड और मृगचर्म का त्याग कर देंगे और (भक्ष्याभक्ष्य का विचार छोड़कर) सब कुछ खाने-पीने वाले हो जायेंगे। तात! ब्राह्मण तो जप से दूर भागेंगे और शूद्र वैदिक मंत्रों के जप में संलग्न होंगे। नरेश्वर! इस प्रकार जब लोगों के विचार और व्यवहार विपरीत हो जाते हैं, तब प्रलय का पूर्वरूप आरम्भ हो जाता है। उस समय इस पृथ्वी पर बहुत-से म्लेच्छ राजा राज्य करने लगते हैं। छल से शासन करने वाले, पापी और असत्यवादी आन्ध्र, शक, पुलिन्द, यवन, काम्बोज, बाह्लीक तथा शौर्यसम्पन्न आभीर इस देश के राजा होंगे। नरश्रेष्ठ! उस समय कोई ब्राह्मण अपने धर्म के अनुसार जीविका चलाने वाला न होगा। नरेश्वर! क्षत्रिय और वैश्य भी अपना-अपना धर्म छोड़कर दूसरे वर्णों के कर्म करने लगेंगे। सबकी आयु कम होगी, सबके बल, वीर्य और पराक्रम घट जायेंगे। मनुष्य नाटे कद के होंगे। उनकी शारीरिक शक्ति बहुत कम हो जायेगी और उनकी बातों में सत्य का अंश बहुत कम होगा। बहुधा सारे जनपद जनशून्य होंगे। सम्पूर्ण दिशाएं पशुओं और सर्पों से भरी होंगी। युगान्तकाल उपस्थित होने पर अधिकांश मनुष्य (अनुभव न होते हुए भी) वृथा ही ब्रह्मज्ञान की बातें कहेंगे। शूद्र द्विजातियों को भी (ऐ) कहकर पुकारेंगे और ब्राह्मण लोग शूद्रों को आर्य अर्थात् आप कहकर सम्बोधन करेंगे। पुरुषसिंह राजन्! युगान्तकाल में बहुत-से जीव-जन्तु उत्पन्न हो जायेंगे। सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ नासिका को उतने गन्धयुक्त नहीं प्रतीत होंगे। नरव्याघ्र! इसी प्रकार रसीले पदार्थ भी जैसे चाहिये वैसे स्वादिष्ट नहीं होंगे। राजन्! उस समय की स्त्रियां नाटे कद की और बहुत संतान (बच्चा) पैदा करने वाली होंगी। उनमें शील और सदाचार का अभाव होगा। युगान्तकाल में स्त्रियां मुख से भगसम्बन्धी यानि व्यभिचार की ही बातें करने वाली होंगी। राजन्! युगान्तकाल में हर देश के लोग अन्न बेचने वाले होंगे। ब्राह्मण वेद बेचने वाले तथा (प्रायः) स्त्रियां वेश्यावृत्ति को अपनाने वाली होंगी'।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अट्टमन्नं शिवो वेदो ब्राह्मणाश्च चतुष्पथाः । केशो भगं समाख्यातं शूलं तद्विक्रयं विदुः।। (नीलकण्ठकृत टीका)
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