महाभारत वन पर्व अध्याय 176 श्लोक 16-23

षट्सप्तत्यधिकशततम (176) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षट्सप्तत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 16-23 का हिन्दी अनुवाद


आपको धन की प्राप्ति हो और आपका ऐश्वर्य बढ़े, यही हमारा प्रधान लक्ष्य है। अतः हम लोग शत्रुओं से भिड़कर वैर की शान्ति करेंगे।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले उत्तम ओज से सम्पन्न श्रेष्ठ महात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने उस समय उन सबके अभिप्राय को जानकर कुबेर के निवासस्थान उस गन्धमादन पर्वत की प्रदक्षिणा की। फिर उन्होंने वहां के भवनों, नदियों, सरोवरों तथा समस्त राक्षसों से विदा ली। इसके बाद वे जिस मार्ग से आये थे, उसकी ओर देखने लगे। तदनन्तर उन विशुद्धबुद्धि महात्मा युधिष्ठिर ने पुनः गन्धमादन पर्वत की ओर देखते हुए उस श्रेष्ठ गिरिराज से इस प्रकार प्रार्थना की- 'शैलेन्द्र! अब अपने मन और बुद्धि को संयम में रखने वाला मैं शत्रुओं को जीतकर अपना खोया हुआ राज्य पाने के बाद सुहृदों के साथ अपने सब कार्य सम्पन्न करके पुनः तपस्या के लिये लौटने पर आपका दर्शन करूंगा।' इस प्रकार युधिष्ठिर ने निश्चय किया।

तत्पश्चात् समस्त भाइयों और ब्रह्माणों से घिरे हुए कुरुराज युधिष्ठिर उसी मार्ग से नीचे उतरने लगे। जहाँ दुर्गम पर्वत और झरने पड़ते थे, वहाँ घटोत्कच अपने गणों सहित आकर पहले की तरह उन सबको पीठ पर बिठा वहां से पार कर देता था।

महर्षि लोमश ने जब पाण्डवों को वहां से प्रस्थान करते देखा, तब जिस प्रकार दयालु पिता अपने पुत्रों को उपदेश देता है, वैसे ही उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर सबको उत्तम उपदेश किया। फिर मन ही मन प्रसन्नता का अनुभव करते हुए वे देवताओं के परम पवित्र स्थान को चले गये। इसी प्रकार राजर्षि आर्ष्टिषेण ने भी उन सबको उपदेश दिया। तत्पश्चात् वे नरश्रेष्ठ पाण्डव पवित्र तीर्थों, मनोहर तपोवनों और अन्य बड़े-बड़े सरोवरों का दर्शन करते हुए आगे बढ़े।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आजगरपर्व में गन्धमादन से प्रस्थान विषयक एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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