महाभारत वन पर्व अध्याय 168 श्लोक 24-46

अष्टषष्टयधिकशततम (168) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अष्टषष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 24-46 का हिन्दी अनुवाद


तब मैंने देवराज इन्द्र से कहा- 'भगवन्! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। देवेश्वर! मैं अस्त्रविद्या की प्राप्ति के लिये आपको अपना आचार्य बनाता हूँ।' इन्द्र ने कहा- 'परंतप तात अर्जुन! दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर तुम भयंकर कर्म करने लगोगे। अतः पाण्डुनन्दन! मेरी इच्छा है कि तुम जिसके लिये अस्त्रों की शिक्षा प्राप्त करना चाहते हो, तुम्हारा वह उद्देश्य पूर्ण हो। यह सुनकर मैंने उत्तर दिया- 'शत्रुघाती देवेश्वर! मैं शत्रुओं द्वारा प्रयुक्त दिव्यास्त्रों का निवारण करने के सिवा अन्य किसी अवसर पर मनुष्यों के ऊपर दिव्यास्त्रों का प्रयोग नहीं करूंगा। देवराज! सुरश्रेष्ठ! आप मुझे वे दिव्य अस्त्र प्रदान करें। अस्त्रविद्या सीखने के पश्चात् मैं उन्हीं अस्त्रों के द्वारा जीते हुए लोकों पर अधिकार प्राप्त करना चाहता हूँ।'

इन्द्र बोले- 'धनंजय! मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिये उपर्युक्त बात कही है। तुमने जो अस्त्रविद्या के प्रति अत्यन्त उत्सुकता प्रकट की है, वह तुम्हारे जैसे मेरे पुत्र के अनुरूप ही है। भारत! तुम मेरे भवन में चलकर सम्पूर्ण अस्त्रों की शिक्षा प्राप्त करो। कुरुश्रेष्ठ! वायु, अग्नि, वसु, वरुण, मरुद्गण, साध्यगण, ब्रह्मा, गन्धर्वगण, नाग, राक्षस, विष्णु तथा निऋति के और स्वयं मेरे भी सम्पूर्ण अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करो। मुझसे ऐसा कहकर इन्द्र वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर थोड़ी ही देर में मुझे हरे रंग के घोड़ों से जुता हुआ देवराज इन्द्र का रथ वहाँ उपस्थित दिखायी दिया। राजन्! वह दिव्य मायामय पवित्र रथ मातलि के द्वारा नियंत्रित था। जब सभी लोकपाल चले गये, तब मातलि ने मुझसे कहा- 'महातेजस्वी वीर! देवराज इन्द्र तुमसे मिलना चाहते हैं। महाबाहो! तुम उनसे मिलकर कृतार्थ होओ और अब आवश्यक कार्य करो। इसी शरीर से देवलोक में चलो तथा पुण्यात्मा पुरुषों के लोकों का दर्शन करो। भरतनन्दन! सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र तुम्हें देखना चाहते हैं। मातलि के ऐसा कहने पर मैं हिमालय से आज्ञा ले रथ की परिक्रमा करके उस श्रेष्ठ रथ में सवार हुआ।

मातलि अश्व संचालन की कला के मर्मज्ञ थे। सारथि के कार्य में अत्यन्त कुशल थे। उन्होंने मन तथा वायु के समान वेगशाली अश्वों को यथोचित रीति से आगे बढ़ाया। राजन्! उस समय देवसारथि मातलि ने आकाश में चक्कर लगाते हुए रथ पर स्थिरतापूर्वक बैठे हुए मेरे मुख की ओर दृष्टिपात किया और आश्चर्यचकित होकर कहा- 'भरतश्रेष्ठ! आज मुझे यह बड़ी विचित्र और अद्भुत बात दिखायी दे रही है कि इस दिव्य रथ पर बैठकर तुम अपने स्थान से तनिक भी हिल-डुल नहीं रहे हो। कुरुकुलभूषण भरतश्रेष्ठ! जब घोड़े पहली बार उड़ान भरते हैं, उस समय मैंने सदा यह देखा है कि देवराज इन्द्र भी विचलित हुए बिना नहीं रह पाते, परंतु तुम चक्कर काटते हुए रथ पर भी स्थिर भाव से बैठे हो। कुरुश्रेष्ठ! तुम्हारी ये सब बातें मुझे इन्द्र से भी बढ़कर प्रतीत हो रही हैं। भरतकुलभूषण नरेश! ऐसा कहकर मातलि ने अन्तरिक्षलोक में प्रविष्ट होकर मुझे देवताओं के घरों और विमानों का दर्शन कराया, फिर हरे रंग के घोड़ों से जुता हुआ वह रथ वहां से भी ऊपर की ओर बढ़ चला। नरश्रेष्ठ! ऋषि और देवता भी उस स्थान का समादर करते थे। तदनन्तर मैंने देवर्षियों के अनेक समुदायों का दर्शन किया, जो अपनी इच्छा के अनुसार सर्वत्र जाने की शक्ति रखते हैं। अमित तेजस्वी गन्धर्वों और अप्सराओं का प्रभाव भी मुझे प्रत्यक्ष दिखायी दिया। फिर इन्द्रसारथि मातलि ने मुझे शीघ्र ही देवताओं के नन्दन आदि वन और उपवन दिखाये। तत्पश्चात् मैंने अमरावतीपुरी तथा इन्द्रभवन का दर्शन किया। वह पुरी इच्छानुसार फल देने वाले दिव्य वृक्षों तथा रत्नों से सुशोभित थी। वहाँ सूर्य का ताप नहीं होता, सर्दी या गर्मी का कष्ट नहीं रहता और न किसी को थकावट ही होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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