चत्वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब सुन्दरी द्रौपदी ने हंसते हुए कहा- ‘भारत! मैं आपके साथ ही चलूंगी; आप मेरे लिये चिन्ता न करें’। लोमश जी कहते हैं- कुन्तीनन्दन! गन्धमादन पर्वत पर तपस्या के बल से ही जाया जा सकता है। हम सब लोगों को तप:शक्ति का संचय करना होगा। महाराज! नकुल, सहदेव भीमसेन, मैं और तुम सभी लोग तपोबल से ही अर्जुन को देख सकेंगे। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार बातचीत करते हुए वे सब लोग आगे बढ़े। कुछ दूर जाने पर उन्हें कुलिन्दराज सुबाहु का विशाल राज्य दिखायी दिया, जहाँ हाथी-घोड़ों की बहुतायत थी और सैकड़ों किरात, तंगण एवं कुलिन्द आदि जंगली जातियों के लोग निवास करते थे। वह देवताओं से सेवित देश हिमालय के अत्यन्त समीप था। वहाँ अनेक प्रकार की आश्चर्यजनक वस्तुएं दिखायी देती थीं। सुबाहु का वह राज्य देखकर उन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। कुलिन्दों के राजा सुबाहु को जब ये पता लगा कि मेरे राज्य में पांडव आये हैं, तब उसने राज्य की सीमा पर जाकर बड़े आदर-सत्कार के साथ उन्हें अपनाया। उनके द्वारा प्रेम से पूजित होकर वे सग लोग बड़े सुख से वहाँ रहे। दूसरे दिन निर्मल प्रभात काल में सूर्योदय होने पर उन सबने हिमालय पर्वत की ओर प्रस्थान किया। जनमेजय! इन्द्रसेन आदि सेवकों, रसोइयों और पाकशाला के अध्यक्ष को तथा द्रौपदी के सारे सामानों को कुलिन्दराज सुबाहु के यहाँ सौंपकर वे महापराक्रमी महारथी कुरुकुलनन्दन पाण्डव द्रौपदी के साथ धीरे-धीरे पैदल ही चल दिये। उनके मन में अर्जुन को देखने की बड़ी उत्कण्ठा थी। अत: वे बड़े हर्ष और उललास के साथ उस देश से प्रस्थित हुए।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में गन्धमादन प्रवेश विषयक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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