द्वादश (12) अध्याय: वन पर्व (अरण्य पर्व)
महाभारत: वन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 123-136 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने वीरों के उस समुदाय में द्रौपदी से इस प्रकार कहा। श्रीकृष्ण बोले- भाविनि! तुम जिन पर क्रुद्ध हुई हो, उनकी स्त्रियाँ भी अपने प्राण प्यारे पतियों को अर्जुन के बाण से छिन्न-भिन्न और खून से लथपथ हो मरकर धरती पर पड़ा देख इसी प्रकार रोयेंगी। पाण्डवों के हित के लिये जो कुछ भी सम्भव है, वह सब करूँगा, शोक न करो। मैं सत्य प्रतिज्ञापूर्वक कह रहा हूँ कि तुम राजरानी बनोगी। कृष्णे! आसमान फट पड़े, हिमालय पर्वत विदीर्ण हो जाये, पृथ्वी के टुकड़े-टुकड़े हो जायें और समुद्र सूख जाये, किंतु मेरी यह बात झूठी नहीं हो सकती।' द्रौपदी ने अपनी बातों के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण के मुख से ऐसी बातें सुनकर तिरछी चितवन से अपने मँझले पति अर्जुन की ओर देखा। महाराज! तब अर्जुन ने द्रौपदी से कहा- ‘ललिमायुक्त सुन्दर नेत्रों वाली देवि! वरवर्णिनि! रोओ मत! भगवान मधुसूदन जो कुछ कह रहे हैं, वह अवश्य होकर रहेगा; टल नहीं सकता।' धृष्टद्युम्न ने कहा- बहिन! मैं द्रोण को मार डालूँगा, शिखण्डी भीष्म का वध करेंगे, भीमसेन दुर्योधन को मार गिरायेंगे और अर्जुन कर्ण को यमलोक भेज देंगे। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम का आश्रय पाकर हम लोग युद्ध में शत्रुओं के लिये अजेय हैं। इन्द्र भी हमें रण में परास्त नहीं कर सकते। फिर धृतराष्ट्र के पुत्रों की तो बात ही क्या है? वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! धृष्टद्युम्न के ऐसा कहने पर वहाँ बैठे हुए वीर भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखने लगे। उनके बीच में बैठे हुए महाबाहु केशव ने उनसे ऐसा कहा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमन पर्व में द्रौपदी-आश्वासनविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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महाभारत वनपर्व अध्याय 12 श्लोक 91-118
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