सप्तम (7) अध्याय: मौसल पर्व
महाभारत: मौसल पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद
भरतश्रेष्ठ! अर्जुन ने कभी धर्म का लोप नहीं किया था। वह धर्मकृत्य पूर्ण कराकर अर्जुन उस स्थान पर गये, जहाँ वृष्णियों का संहार हुआ था। उस भीषण मारकाट में मरकर धराशायी हुए यादवों को देखकर कुरुकुलनन्दन अर्जुन को बड़ा भारी दु:ख हुआ। उन्होंने ब्रह्मशाप के कारण एरका से उत्पन्न हुए मूसलों द्वारा मारे गये यदुवंशी वीरों के बड़े-छोटे के क्रम से सारे समयोचित कार्य (अन्त्येष्टि कर्म) सम्पन्न किये। तदनन्तर विश्वस्त पुरुषों द्वारा बलराम तथा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण दोनों के शरीरों की खोज कराकर अर्जुन ने उनका भी दाह संस्कार किया। पांडुनन्दन अर्जुन उन सबके प्रेतकर्म विधिपूर्वक सम्पन्न करके तुरन्त रथ पर आरूढ़ हो सातवें दिन द्वारका से चल दिये। उनके साथ घोडे़, बैल, गधे और ऊंटों से जुते हुए रथों पर बैठकर शोक से दुर्बल हुई वृष्णिवंशी वीरों की पत्नियाँ रोती हुई चलीं। उन सबने पांडुपुत्र महात्मा अर्जुन का अनुगमन किया। अर्जुन की आज्ञा से अन्धकों और वृष्णिवंशियों के नौकर, घुड़सवार रथी तथा नगर और प्रान्त के लोग बूढे़ और बालकों से युक्त विधवा स्त्रियों को चारों ओर से घेरकर चलने लगे। हाथी सवार पर्वताकार हाथियों द्वारा गुप्त रूप से अस्त्र-शस्त्र धारण किये यात्रा करने लगे। उनके साथ हाथियों के पादरक्षक भी थे। अन्धक और वृष्णि वंश के समस्त बालक अर्जुन के प्रति श्रद्धा रखने वाले थे। वे तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, महाधनी शूद्र और भगवान श्रीकृष्ण की सोलह हज़ार स्त्रियाँ- ये सब-की-सब बुद्धिमान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्र को आगे करके चल रहे थे। भोज, वृष्णि और अन्धक कुल की अनाथ स्त्रियों की संख्या कई हज़ारों, लाखों और अरबों तक पहुँच गयी थी। वे सब द्वारकापुरी से बाहर निकलीं। वृष्णियों का वह महान समृद्धिशाली मण्डल महासागर के समान जान पड़ता था। शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन उसे अपने साथ लेकर चले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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