महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 39 श्लोक 4-8

एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 4-8 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 15


उसके पश्चात् उस परमपद रूप परमेश्वर को भलीभाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर इस पुरातन संसारवृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदि पुरुष नारायण के मैं शरण हूँ, इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिये।[1] सम्बन्ध- अब उपर्युक्त प्रकार से आदिपुरुष परमपद स्वरूप परमेश्वरी की शरण होकर उसको प्राप्त हो जाने वाले पुरुषों के लक्षण बतलाये जाते हैं- जिनका मान और मोह नष्ट हो गया हैं जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएं पूर्णरूप से नष्ट हो गयी हैं, वे सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त[2] ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं। जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही[3] वही मेरा परम धाम है।[4]

सम्बन्ध- पहले और तीसरे श्लोक तक संसार वृक्ष के नाम से क्षर पुरुष का वर्णन किया, उसमें जीवरूप अक्षर पुरुष के बन्धन हेतु तथा उसके द्वारा मनुष्य योनि में अहंता-ममता और आसक्तिपूर्वक किये हुए कर्मों को बताया तथा उस बंधन से छूटने का उपाय और सृष्टिकर्ता आदि पुरुष पुरुषोत्म की शरण ग्रहण करना बताया। अब इस पर यह जिज्ञासा होती है कि उपयुक्त प्रकार से बँधे हुए जीव का क्या स्वरूप है और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, उसे कौन कैसे जानता है अतः इन सब बातों का स्पष्टीकरण करने के लिये पहले कृष्ण अर्जुन को जीव का स्वरूप बतलाते हैं- इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है[5] और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को[6] आकर्षण करता है। सम्बन्ध- यह जीवात्मा मनसहित छः इन्द्रियों को किस समय, किस प्रकार और किस लिये आकर्षित करता है तथा वे मनसहित छः इन्द्रियां कौन-कौन हैं- ऐसी जिज्ञासा होने पर अब दो श्लोकों में इसका इसका उत्तर दिया जाता है- वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मनसहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।[7]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस अध्याय के पहले श्लोक में जिसे ‘ऊर्ध्‍व’ कहा गया है, गीता के चौदहवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक मे जो ‘माम्’ पद से और सत्ताईसवें श्लोक में ‘अहम्’ पद से कहा गया है एवं अन्यान्य स्थलों में जिसका कही परम् पद, कही अव्यय पद और कहीं परम गति तथा कहीं परम धाम के नाम से भी कहा है, उसी को यहाँ परम पद के नाम से कहते हैं। उस सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वर को प्राप्त करने की इच्छा से जो बार बार उनके गुण और प्रभाव के सहित स्वरूप का मनन और निदिध्यासन द्वारा अनुसंधान करते रहना है, यही उस परम् पद को खोजना है। अतः उपयुक्त प्रकार से उसका अनुसंधान करने के लिये अपने अंदर जरा भी अभिमान न आने देकर और सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण लेकर-उसका अनन्य आश्रय लेकर उसी पर पूर्ण विश्वासपूर्वक निर्भर हो जाना चाहिये।
  2. शीत-उष्ण, प्रिय-अप्रिय, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा- इत्यादि द्वन्द्वों को सुख और दुःख हेतु होने से सुख-दुःख संज्ञक कहा गया है। इन सबसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न रखना अर्थात किसी भी द्वन्द्व के संयोग-वियोग में जरा भी राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि विकार का न होना ही उन द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त होना है।
  3. समस्त संसार को प्रकाशित करने वाले सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि एवं ये जिनके देवता है- वे चक्षु, मन और वाणी कोई भी उस परम पद को प्रकाशित नहीं कर सकते। इनके अतिरिक्त और भी जितने प्रकाशक तत्त्व माने गये हैं, उनमें से भी कोई या सब मिलकर भी उस परम पद को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं है क्‍योंकि ये सब उसी के प्रकाश से उसी की सत्ता-स्फुति किसी अंश से स्वयं प्रकाशित होते हैं। (गीता 15/12)
  4. जहाँ पहुँचने के बाद इस संसार से कभी किसी भी काल में और किसी भी अवस्था में पुनः सम्बन्ध नहीं हो सकता, वही मेरा परम धाम अर्थात् मायातीत धाम है और वही मेरा भाव और स्वरूप है। इसी को अव्यक्त, अक्षर और परम गति भी कहते हैं (गीता 8/21)। इसी का वर्णन करती हुई श्रुति कहती है
    ‘यंत्र न सूर्यस्तपति यत्र न वायूर्वाति यत्र न चन्द्रमा भाति यत्र न नक्षत्राणि भान्ति यत्र नाग्निर्दहति यत्र न मृत्यूः प्रविशति यत्र न दुःखानि प्रविशन्ति सदानंद परमानंद शांत शाश्वत सदाशिवं ब्रह्मादिवन्दितं योगिध्येय परं पदं यत्र गत्वा न निवर्तन्ते योगिनः।’
    ‘जहाँ सूर्य नहीं तपता, जहाँ वायु नहीं बहता, जहाँ चन्द्रमा नहीं प्रकाशित होता, जहाँ तारे नहीं चमकते’ जहाँ अग्नि नहीं जलाता, जहाँ मृत्यु नहीं प्रवेश करती, जहाँ दुःख नहीं प्रवेश करते और जहाँ जाकर योगी लौटते नहीं-वह सदानन्द, परमानन्द, शांत सनातन, सदाकल्याण स्वरूप, ब्रह्मादि देवताओं के द्वारा वन्दित, योगियों का ध्येय परम पद है’
  5. जैसे सर्वत्र समभाव से स्थित विभागरहित महाकश घडे़ और मकान आदि के सम्बन्ध से विभक्त-सा प्रतीत होने लगता है और उन घड़े आदि में स्थित आकाश महाकश का अंश माना जाता है, उसी प्रकार यद्यपि मैं विभाग रहित समभाव से सर्वत्र व्याप्त हूं, तो भी भिन्न-भिन्न शरीरों के सम्बन्ध से पृथक् पृथक् विभक्त सा प्रतीत होता हूँ (गीता 13/16) और उन शरीरों मे स्थित जीव मेरा अंश माना जाता है तथा इस प्रकार का यह विभाग अनादि है, नवीन नहीं बना है। यही भाव दिखलाने के लिये जीवात्मा को भगवान् ने अपना सनातन अंश बतलाया है।
  6. पांच ज्ञानेन्द्रियां और एक मन- इन छहों की ही सब विषयों अनुभव करने में प्रधानता है, कमेन्द्रियों का कार्य भी बिना ज्ञानेन्द्रियों के नहीं चलता इसलिये यहाँ मन के सहित इन्द्रियों की संख्या छः बतलायी गयी है। अतएव पांच कमेन्द्रियों का इनमें अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए।
  7. यहाँ आधार के स्थान में स्थूल शरीर है, गन्ध के स्थान में सूक्ष्म शरीर है जो वायु के स्थान में जीवात्मा है। जैसे वायु गन्ध को एक स्थान से उडाकर दूसरे स्थान में ले जाता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी इन्द्रिय, मन, बुद्धि और प्राणों के समुदायरूप सूक्ष्म शरीर को एक स्थूल शरीर से निकालकर दूसरे स्थूलशरीर में ले जाता है।
    यद्यपि जीवात्मा परमात्मा का ही अंश होने के कारण वस्तुतः नित्य और अचल है, उसका कहीं आना-जाना नहीं बन सकता, तथापि सूक्ष्मशरीर के साथ इसका सम्बन्ध होने के कारण सूक्ष्मशरीर के द्वारा एक स्थूलशरीर से दूसरे स्थूलशरीर में जीवात्मा का जाना-सा प्रतीत होता है इसलिये यहाँ ‘संयाति’ क्रिया का प्रयोग करके जीवात्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना बतलाया गया है। गीता के दूसरे अध्याय के 22 वें श्लोक में भी यही बात कही गयी है।

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