महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 38 श्लोक 10-16

अष्टात्रिंश (38) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 10-16 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 14


हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण,[1] सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण,[2] वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण[3] होता है। अर्थात बढ़ता है।[4]

सम्बन्ध- इस प्रकार अन्य दो गुणों को दबाकर प्रत्येक गुणों के बढ़ने की बात कही गयी। अब प्रत्येक गुण की वृद्धि के लक्षण जानने की इच्छा होने पर क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, वृद्धि के लक्षण बतलाये जाते हैं- जिस समय इस देह में[5] तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना और विवेक शक्ति उत्पन्न होती हैं, उस समय ऐसा जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा है।[6] हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृति, स्वार्थ-बुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं।[7] हे अर्जुन! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियां- ये सब ही उत्पन्न होते हैं।[8]-

सम्बन्ध- इस प्रकार तीनों गुणों की वृद्धि के भिन्न-भिन्न लक्षण बतलाकर अब दो श्लोकों में उन गुणों में से किस गुण की वृद्धि के समय मरकर मनुष्य किस गति को प्राप्त होता है, यह बतलाया जाता है- जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है।[9] तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त होता है। रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर[10] कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ[11] मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है।

सम्बन्ध- सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों की वृद्धि में मरने के भिन्न-भिन्न फल बताये गये हैं कि किस प्रकार कभी किसी गुण की और कभी किसी गुण की वृद्धि क्‍यों होती हैं इस पर कृष्ण कहते हैं- श्रेष्ठ कर्म का तो सात्त्विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है।[12] राजस कर्म का फल दुःख[13] एवं तामस कर्म का फल अज्ञान[14] कहा है। सम्बन्ध- ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें श्लोकों में सत्त्व, रज और तमोगुण की वृद्धि के लक्षण का क्रम से वर्णन किया गया इस पर यह जानने की अच्छा होती है कि ‘ज्ञान’ आदि की उत्पत्ति को सत्त्व आदि गुणों की वृद्धि के लक्षण क्यों माना गया। अतएव कार्य की उत्पत्ति से कारण की सत्ता को जान लेने के लिये ज्ञान आदि की उत्पत्ति में सत्त्व आदि गुणों को कारण बतलाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रजोगुण के कार्य लोभ, प्रवृत्ति और भोगवासनादि तथा तमोगुण के कार्य निद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि को दबाकर जो सत्त्वगुण का ज्ञान, प्रकाश और सुख आदि को उत्पन्न कर देना है, यही रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण बढ़ जाना है।
  2. जिस समय सत्त्वगुण और तमोगुण की प्रवृति को रोककर तमोगुण अपना कार्य आरम्भ करता है, उस समय शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण चंचलता, अशांति, लोभ, भोगवासना और नाना प्रकार के कर्मों में प्रवृत होने की उत्कष्ट इच्छा उत्पन्न हो जाती है- यही सत्त्वगुण और प्रमोदगुण दबाकर रजोगुण बढ़ जाता है।
  3. जिस समय सत्त्वगुण और रजोगुण की प्रवृति को रोककर तमोगुण अपना कार्य आरम्भ करता है, उस समय शरीर, इन्द्रियां और अन्तःकरण मोह आदि बढ़ जाते हैं और प्रमाद में प्रवृति हो जाती है, वृतियां विवेकशून्य हो जाती है- यही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण का बढ़ना है।
  4. गुणों की वृद्धि में निम्नलिखित दस हेतु श्रीमद्रागवत में बतलायें है-आगमोअपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च। ध्यानं मन्त्रोअथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः।।(11/13/10) ‘शास्त्र’ जल, संतान, देश, काल, कर्म, योनि, चिन्तन, मन्त्र और संस्कार- ये दस गुणों के हेतु हैं अर्थात गुणों को बढ़ाने वाले हैं। अभिप्राय यह है कि उपयुक्त पदार्थ जिस गुण से युक्त होते हैं, उनका संग उसी गुण को बढ़ा देता हैं।
  5. अभिप्राय यह है कि सत्त्वगुण की वृद्धि का अवसर मनुष्य-शरीर में ही मिल सकता है और इसी शरीर में सत्त्वगुण की सहायता पाकर मनुष्य मुक्ति लाभ कर सकता है, दूसरी योनियों में ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं हैं
  6. शरीर में चेतना, हलकापन तथा इन्द्रिय और अन्तःकरण में निर्मलता और चेतना की अधिकता हो जाना ही ‘प्रकाश’ का उत्पन्न होना है एवं सत्य-असत्य तथा कर्तव्य-अर्कतव्य निर्णय करने वाली विवेकशक्ति का जाग्रत हो जाना ‘ज्ञान’ का उत्पन्न होना है। जिस समय प्रकाश और ज्ञान- इन दोनों का प्रादुर्भाव होता है, उस समय दुःख, शोक, चिंता, भय, चंचलता, निद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि का अभाव सा हो जाता है। उस समय मनुष्य को सावधान होकर अपना मन भजन-ध्यान में लगाने की चेष्टा करनी चाहिये तभी सत्त्वगुण की प्रवृति अधिक समय ठहर सकती है अन्यथा उसकी अवहेलना कर देने से शीघ्र ही तमोगुण या रजोगुण उसे दबाकर अपना कार्य आरम्भ कर सकते हैं।
  7. जिसके कारण मनुष्य प्रतिक्षण धन की वृद्धि के उपाय सोचता रहता है, धन व्यय करने का समुचित अवसर प्राप्त होने पर भी उसका त्याग नहीं करता एवं धनोपार्जन के समय कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन छोड़कर दूसरे के स्वत्व पर भी अधिकार जमाने की इच्छा या चेष्टा करने लगता है, उस धन की लालसा का नाम ‘लोभ’ है। नाना प्रकार के कर्म करने के लिये मानसिक भावों का जाग्रत होना ‘प्रवृति’ है। उन कर्मों को सकामभाव से करने लगना उनका ‘आरम्भ’ है। मन की चंचलता का नाम ‘अशांति’ है, और किसी भी प्रकार के सांसारिक पदार्थों को अपने लिये आवश्यक मानना ‘स्पृहा’ है। रजोगुण की वृद्धि के समय इन लोभ आदि भावों का प्रादुर्भाव होना ही उनका उत्पन्न हो जाना है।
  8. मनुष्य इन्द्रिय और अन्तःकरण में दीप्ति का अभाव हो जाना ही ‘अप्रकाश’ का उत्पन्न होना हैं। कोई भी कर्म अच्छा नहीं लगता, केवल पड़े रहकर ही समय बिताने की इच्छा होना, यह ‘अप्रवृति’ का उत्पन्न होना है। शरीर और इन्द्रियों द्वारा व्यर्थ चेष्टा करते रहना और कर्तव्यकर्म में अवहेलना करना, यह ‘प्रमाद’ का उत्पन्न होना है। मन का मोहित हो जाना किसी बात की स्मृति न रहना तन्द्रा, स्वप्र या सुषुप्ति-अवस्था का प्राप्त हो जाना विवेक शक्ति का अभाव हो जाना किसी विषय को समझने की शक्ति का न रहना- यही सब ‘मोह’ का उत्पन्न होना है। ये सब लक्षण तमोगुण की वृद्धि के समय उत्पन्न होते है, अतएव इनमें से कोई सा भी लक्षण अपने में देखा जाये, तब मनुष्य को समझना चाहिये कि तमोगुण बढ़ा हुआ है।
  9. इस प्रकरण में ऐसे मनुष्य की गति का निरूपण किया जाता है, जिसकी स्वाभाविक स्थिति दूसरे गुणों में होते हुए भी सात्त्विक गुण वृद्धि में मृत्यु हो जाती है। ऐसे मनुष्य में जिस समय पूर्व संस्कार आदि किसी कारण से सत्त्वगुण बढ़ जाता है- अर्थात जिस समय ग्यारहवें श्लोक के वर्णनानुसार उसके समस्त शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण में ‘प्रकाश’ और ‘ज्ञान’ उत्पन्न हो जाता है, उस समय स्थूल शरीर से मन, इन्द्रियों और प्राणों के सहित जीवात्मा सम्बन्ध विच्छेद हो जाना ही सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होना है।
  10. सात्त्विक और तामस पुरुष भी हृदय में जिस समय बारहवें श्लोक के अनुसार लोभ, प्रवृत्ति आदि राजस भाव बढे हुए होते हैं, उस समय जो स्थूल शरीर से मन, इन्द्रियों और प्रमाणों के सहित जीवात्मा का सम्बन्ध विच्छेद हो जाना है- वही रजोगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होना है।
  11. जिस समय सात्त्विक और राजस पुरुष के भी हृदय में तेरहवें श्लोक के अनुसार अप्रकाश अप्रवृत्ति और प्रमाद आदि तामस भाव बढ़े हुए हों, उस समय जो स्थूल शरीर से मन, इन्द्रियों और प्राणों के सहित जीवात्मा का सम्बन्ध विच्छेद हो जाना है, वही तमोगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होना है।
  12. जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म निष्कामभाव से किये जाते हैं, उन सात्त्विक कर्मों के संस्कारों से अन्तःकरण में जो ज्ञान वैराग्यादि निर्मल भावों का बार बार प्रादुर्भाव होता रहता है और मरने के बाद जो दुःख और दोषों से रहित दिव्य प्रकाशमय लोकों की प्राप्ति होती है, वही उनका ‘सात्त्विक और निर्मल फल’ है।
  13. जो कर्म भोगों की प्राप्ति के लिये अहंकारपूवर्क बहुत परिश्रम के साथ किये (गीता 28/24), वे राजस है। ऐसे कर्मों के करते समय तो परिश्रमरूप दुःख होता ही है, परन्तु उसके बाद भी वे दुःख ही देते रहते हैं। उसके संस्कारों के अन्तःकरण में बार बार भोग, कामना, लोभ और प्रवृत्ति आदि राजस भाव स्फुरित होते हैं- जिनसे मन विक्षिप्त होकर अशांति और दुःखों से भर जाता है। उन कर्मों के फलस्वरूप जो भोग प्राप्त होते हैं, वे भी अज्ञान सुखरूप दिखने पर भी वस्तुतः दुःख रूप ही होते हैं और फल भोगने के लिये जो बार बार जन्म मरण के चक्र में पड़े रहना पड़ता है, वह तो महान दुःख है ही।
  14. जो कर्म बिना सोचे समझे मूर्खतावश किये जाते हैं और जिनमें हिंसा आदि दोष भरे रहते हैं (गीता 28/25), वे ‘तामस’ है। उनके संस्कारों से अन्तःकरण में मोह बढ़ता है और मरने के बाद जिन योनियों मे तमोगुण की अधिकता है- ऐसी जड़योनियों की प्राप्ति होती है वही उसका फल ‘अज्ञान’ है।

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