महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 34 श्लोक 39-42

चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 39-42 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 10

और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण हैं, वह भी मैं ही हूं;[1] क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो।[2] हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिये एक देश से अर्थात संक्षेप से कहा है।

सम्बन्ध- अठारहवें श्‍लोक में अर्जुन ने भगवान से उनकी विभूति और योगशक्ति का वर्णन करने की प्रार्थना की थी, उसके अनुसार भगवान अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णनसमाप्त करके अब संक्षेप में अपनी योगशक्ति का वर्णन करते हैं- जो-जो भी विभुतियुक्त अर्थात ऐश्वर्ययु‍क्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान।[3] अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है?[4] मैं इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योगशक्ति के एक अंश-मात्र से धारण करके स्थित हूँ।[5]


इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्ररूप श्रीमद्भगवद्गीतानिषद्, श्रीकृष्‍णार्जुनसंवाद में विभूतियोग नामक दसवां अध्‍याय पूरा हुआ।।10।। भीष्‍मपर्व में चौंतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवान ही समस्त चराचर भूतप्राणियों के परम आधार हैं और उन्हीं से सबकी उत्पत्ति होती है। अतएव वे ही सबके बीज या महान कारण हैं। इसी से गीता के सातवें अध्‍याय के दसवें श्‍लोक में उन्हें सब भूतों का ‘सनातन बीज’ और नवम अध्‍याय के अठारहवें श्‍लोक में ‘अविनाशी बीज’ बतलाया गया है। इसीलिये भगवान ने उसको यहाँ अपना स्वरूप बतलाया है।
  2. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि चर या अचर जितने भी प्राणी हैं, उन सबमें मैं व्याप्त हूं; कोई भी प्राणी मुझसे रहित नहीं हैं। अतएव समस्त प्राणियों को मेरा स्वरूप समझकर और मुझे उनमें व्याप्त समझकर जहाँ भी तुम्हारा मन जाय, वहीं तुम मेरा चिन्तन करते रहो। इस प्रकार अर्जुन के ‘आपको किन-किन भावों में चिन्तन करना चाहिये?’ (गीता 10:17) इस प्रश्‍न का भी इससे उत्तर हो जाता है।
  3. जिस किसी भी प्राणी या जड़वस्तु में उपर्युक्त ऐश्वर्य, शोभा, कान्ति, शक्ति, बल, तेज, पराक्रम या अन्य किसी प्रकार की शक्ति आदि सब-के-सब या इनमें से कोई एक भी प्रतीत होता हो, उस प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक वस्तु को भगवान के तेज का अंश समझना ही उसको भगवान के तेज के अंश की अभिव्यक्ति समझना हैं। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार बिजली की शक्ति से कहीं रोशनी हो रही हैं, कहीं पंखे चल रहे हैं, कहीं जल निकल रहा है, कहीं रेडियों में दूर-दूर के गाने सुनायी पड़ रहे हैं- इस प्रकार भिन्न-भिन्न अनेकों स्थानों में और भी बहुत कार्य हो रहे हैं; परंतु यह निश्चय है कि जहां-जहाँ ये कार्य होते हैं, वहां-वहाँ बिजली का ही प्रभाव कार्य कर रहा है, वस्तुत: वह बिजली के ही अंश की अभिव्यक्ति है। उसी प्रकार जिस प्राणी या वस्तु में जो भी किसी तरह की विशेषता दिखलायी पड़ती हैं, उसमें भगवान के ही तेज के अंश की अभिव्यक्ति समझनी चाहिये।
  4. इस कथन से भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि तुम्हारे पूछने पर मैंने प्रधान-प्रधान विभूतियों का वर्णन तो कर दिया, किंतु इतना ही जानना यथेष्‍ट नहीं है। सार बात यह है जो मैं अब तुम्हें बतला रहा हुं, इसको तुम अच्छी प्रकार समझ लो; फिर सब कुछ अपने-आप ही समझ में आ जायगा, उसके बाद तुम्हारे लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा।
  5. मन, इन्द्रिय और शरीरसहित समस्त चराचर प्राणी तथा भोगसामग्री, भोगस्थान और समस्त लोकों के सहित यह ब्रह्माण्‍ड भगवान के किसी एक अंश में उन्हीं की योगशक्ति से धारण किया हुआ हैं, यही भाव दिखलाने के लिये भगवान ने इस जगत के सम्पूर्ण विस्तार को अपनी योगशक्ति के एक अंश से धारण किया हुआ बतलाया है।

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