सप्तविंश (27) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 40-43 का हिन्दी अनुवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा की ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है।[1] इसलिये हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले[2] महान् पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल। सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में इन्द्रियों को वश में करके कामरूप शत्रु को मारने के लिये कहा गया। इस पर यह शंका होती है कि जब इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर काम का अधिकार है और उनके द्वारा काम ने जीवात्मा को मोहित कर रखा है, तब ऐसी स्थिति में वह इन्द्रियों को वश में करके काम को कैसे मार सकता है। इस पर कहते हैं- इन्दियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं; इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है।[3] इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा[4] को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके[5] हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल।
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्म पर्व के श्रीमद्भगवद्गीतापर्व के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या एवं योगशास्त्र रूप श्रीमद्भवद्गीतोपनिषद, श्री कृष्णार्जुन संवाद में कर्मयोग नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ 3 भीष्मपर्व में सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह काम मनुष्य के मन, बुद्धि और इन्द्रियों में प्रविष्ट होकर उसकी विवेकशक्ति को नष्ट कर देता है और भोगों में सुख दिखलाकर उसे पापों में प्रवृत्त कर देता है, जिससे मनुष्य का अधापतन हो जाता है। इसलिये शीघ्र ही सचेत हो जाना चाहिये।
- ↑ भगवान् के निर्गुण निराकार तत्त्व के प्रभाव, महात्म्य और रहस्य से युक्त यथार्थ ज्ञान को ज्ञान तथा सगुण निराकार और दिव्य साकार तत्त्व के लीला, रहस्य, गुण, महत्त्व और प्रभाव से युक्त यथार्थ ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान और विज्ञान की यथार्थ प्राप्ति के लिये हृदय में जो आकांक्षा उत्पन्न होती है, उसको यह महान् कामरूप शत्रु अपनी मोहिनी शक्ति के द्वारा नित्य निरन्तर दबाता रहता है अर्थात् उस आकांक्षा की जागृति से उत्पन्न ज्ञान विज्ञान के साधनों में बाधा पहुँचाता रहता है, इसी कारण ये प्रकट नहीं हो पाते, इसलिये काम को उनका नाश करने वाला बतलाया गया है।
- ↑ आत्मा सबका आधार, कारण, प्रकाशक और प्रेरक तथा सूक्ष्म, व्यापक, श्रेष्ठ, बलवान् और नित्य चेतन होने के कारण उसे अत्यन्त पर कहा गया है।
- ↑ शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और जीव- इन सभी का वाचक आत्मा है। उनमें से सर्वप्रथम इन्द्रियों को वश में करने के लिये इकतालीसवें श्लोक में कहा जा चुका है। शरीर इन्दियों के अन्तर्गत आ ही गया, जीवात्मा स्वयं वश में करने वाला है। अब बचे मन और बुद्धि, बुद्धि को मन से बलवान् कहा है; अत: इसके द्वारा मन को वश में किया जा सकता है। इसलिये आत्मानम् का अर्थ मन और आत्मना का अर्थ बुद्धि किया गया है।
- ↑ भगवान् ने गीता के छठे अध्याय में मन को वश में करने के लिये अभ्यास और वैराग्य- ये दो उपाय बतलाये हैं (गीता 6।35)। प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में मनुष्य का स्वाभाविक राग-द्वेष रहता है, विषयों के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध होते समयस जब-जब राग-द्वेष का अवसर आवे, तब-तब बड़ी सावधानी के साथ बुद्धि से विचार करते हुए राग-द्वेष के वश में न होने की चेष्टा रखने से शनै:-शनै: राग-द्वेष कम होते चले जाते हैं। यहाँ बुद्धि से विचार कर इन्द्रियों के भोगों में दु:ख और दोषों का बार-बार दर्शन कराकर मन की उनमें अरुचि उत्पन्न कराना वैराग्य है और व्यवहार काल में स्वार्थ के त्याग की और ध्यान के समय मन को परमेश्वर के चिन्तन में लगाने की चेष्टा रखना और मन को भोगों की प्रवृत्ति से हटाकर परमेश्वर के चिन्तन में बार-बार नियुक्त करना अभ्यास है। अवश्य ही आत्मा में अनन्त बल है, वह काम को मार सकता है। वस्तुत: उसी के बल को पाकर सब बलवान् और क्रियाशील होते हैं; परंतु वह अपने महान् बल को भूल रहा है और जैसे प्रबल शक्तिशाली सम्राट अज्ञानवश अपने बल को भूलकर अपनी अपेक्षा सर्वथा बलहीन क्षुद्र नौकर चाकरों के अधीन होकर उनकी हाँ में हाँ मिला देता है, वैसे ही आत्मा भी अपने को बुद्धि, मन और इन्द्रियों के अधीन मानकर उनके कामप्रेरित उच्छृखंलतापूर्ण मनमाने कार्यों में मूक अनुमति दे रहा है। इसी से उन बुद्धि, मन और इन्द्रियों के अंदर छिपा हुआ काम जीवात्मा को विषयों का प्रलोभन देकर उसे संसार में फँसाता रहता है। अतएव यह आवश्यक है कि आत्मा अपने स्वरूप को और अपनी शक्ति को पहचानकर बुद्धि, मन और इन्द्रियों को वश में करे। अन्त में इनको वश में कर लेने पर काम सहज ही मर सकता है। काम को मारने का वस्तुत: अक्रिय आत्मा के लिये यही तरीका है। इसलिये बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके काम को मारना चाहिये।
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