महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 85 श्लोक 18-38

पंचाशीतितम (85) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

Prev.png

महाभारत: द्रोण पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद
  • वेद-विद्या के भण्डार जिस सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा के यहाँ सातों यज्ञों का अनुष्‍ठान करने वाले याजक सदा रहा करते थे, अब वहाँ उन ब्राह्मणों की आवाज नहीं सुनायी देती है। (18)
  • द्रोणाचार्य के घर में निरन्तर धनुष प्रत्यंचा का घोष, वेदमन्त्रों के उच्चारण की ध्वनि तथा तोमर, तलवार एवं रथ के शब्द गूँजते रहते थे; परंतु अब मैं वहाँ वह शब्द नहीं सुन रहा हूँ। (19)
  • नाना प्रदेशों से आये हुए लोगों के गाये हुए गीतों का और बजाये हुए बाजों का भी जो महान शब्द श्रवण गोचर होता था, वह अब नहीं सुनायी देता है। (20)
  • संजय! जब अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले भगवान जनार्दन समस्त प्राणियों पर कृपा करने के लिये शान्ति स्थापित करने की इच्छा लेकर उपप्लव्य से हस्तिनापुर पधारे थे, उस समय मैंने अपने मूर्ख पुत्र दुर्योधन से इस प्रकार कहा था। (21-22)
  • 'बेटा। भगवान श्रीकृष्ण को साधन बनाकर पाण्डवों के साथ संधि कर लो। मैं इसी को समयोचित कर्तव्य मानता हूँ। दुर्योधन! तुम इसे टालो मत।' (23)
  • 'भगवान श्रीकृष्ण तुम्हारे हित की बात कहते हैं और स्वयं संधि के लिये याचना कर रहे हैं। ऐसी दशा में यदि तुम इनकी बात नहीं मानोगे तो युद्ध में तुम्हारी विजय नहीं होगी।' (24)
  • 'परंतु उसने सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्‍ठ भगवान श्रीकृष्ण की बात मानने से इनकार कर दिया। यद्यपि वे अनुनयपूर्ण वचन बोलते थे, तथापि दुर्योधन ने अन्यायवश उन्हें नहीं माना। (25)
  • कर्ण, दुःशासन और खोटी बुद्धि वाले शकुनि के मत में आकर मेरे कुल का नाश करने वाले दुर्योधन ने महाबाहु श्रीकृष्ण का तिरस्कार कर दिया।
  • फिर तो काल से आकृष्‍ट हुए दुर्बुद्धि दुर्योधन ने मुझे छोड़कर दुःशासन और कर्ण इन्हीं दोनों के मत का अनुसरण किया। (26)
  • मैं जूआ खेलना नहीं चाहता था, विदुर भी उसकी प्रशंसा नहीं करते थे, सिंधुराज जयद्रथ भी जूआ नहीं चाहते थे और भीष्‍म जी भी द्यूत की अभिलाषा नहीं रखते थे। (27)
  • संजय! शल्य, भूरिश्रवा, पुरुषमित्र, जय ,अश्वत्थामा, कृपाचार्य और द्रोणाचार्य भी जूआ होने देना नहीं चाहते थे। (28)
  • यदि बेटा दुर्योधन इन सब की राय लेकर चलता तो भाई-बन्धु, मित्र और सुहृदों सहित दीर्घकाल तक नीरोग एवं स्वस्थ रहकर जीवन धारण करता। (29)
  • 'पाण्डव सरल, मधुरभाषी, भाई-बन्धुओं के प्रति प्रिय वचन बोलने वाले, कुलीन, सम्मानित और विद्वान हैं; अतः उन्हें सुख की प्राप्ति होगी। (30)
  • धर्म की अपेक्षा रखने वाला मनुष्‍य सदा सर्वत्र सुख का भागी होता है। मृत्यु के पश्‍चात भी उसे कल्याण एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है।' (31)
  • 'पाण्डव पृथ्वी का राज्य भोगने में और उसे प्राप्त करने में भी समर्थ हैं। यह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी उनके बाप-दादों की भी है।' (32)
  • 'तात! पाण्डवों को यदि आदेश दिया जाये तो वे उसे मानकर सदा धर्म-मार्ग पर ही स्थिर रहेंगे। मेरे अनेक ऐसे भाई-बन्धु हैं, जिनकी बात पाण्डव सुनेंगे।' (33)
  • 'वत्स! शल्‍य, सोमदत्त महात्मा भीष्‍म, द्रोणाचार्य , विकर्ण, बाह्लीक, कृपाचार्य तथा अन्य जो बड़े-बूढे़ महामना भरतवंशी हैं।, वे यदि तुम्हारे लिये उनसे कुछ कहेंगे तो पाण्डव उनकी बात अवश्‍य मानेंगे।' (34-35)
  • 'बेटा दुर्योधन! तुम उपर्युक्त व्यक्तियों में से किसको ऐसा मानते हो जो पाण्डवों के विषय में इसके विपरीत कह सके। श्रीकृष्ण कभी धर्म का परित्याग नहीं कर सकते और समस्त पाण्डव उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करने वाले हैं।' (36)
  • 'मेरे कहने पर भी मेरे धर्मयुक्त वचन की अवहेलना नहीं करेगें; क्योंकि वीर पाण्डव धर्मात्मा हैं।' (37)
  • सूत। इस प्रकार विलाप करते हुए मैंने अपने पुत्र दुर्योधन से बहुत कुछ कहा, परंतु उस मुर्ख ने मेरी एक नहीं सुनी। अतः मैं समझता हूँ कि कालचक्र ने पलटा खाया है। (38)

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः