महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 84 श्लोक 18-35

चतुरशीतितम (84) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व:चतुरशीतितम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद
  • अर्जुन के बैठने के बाद सात्यकि और श्रीकृष्ण भी उस रथ पर आरूढ़ हो गये, मानो राजा शर्याति के यज्ञ में आते हुए इन्द्रदेव के साथ दोनों अश्विनीकुमार आ रहे हों। (18)
  • उन घोड़ों की रास पकड़ने की कला में सर्वश्रेष्‍ठ भगवान गोविन्द ने रथ की बागडोर अपने हाथ में ली, ठीक उसी प्रकार जैसे, वृत्रासुर का वध करने के लिये जाने वाले इन्द्र के रथ की बागडोर मातलि ने पकड़ी थी। (19)
  • सात्यकि और श्रीकृष्ण दोनों के साथ उस श्रेष्‍ठ रथ पर बैठे हुए अर्जुन बुध और शुक्र के साथ स्थित हुए अन्धकार-नाशक चन्द्रमा के समान जान पड़ते थे। (20)
  • शत्रुसमूह का नाश करने वाले अर्जुन जब सात्यकि और श्रीकृष्ण के साथ सिंधुराज जयद्रथ का वध करने की इच्छा से प्रस्थित हुए, उस समय वरुण और मित्र के साथ तारकामय संग्राम में जाने वाले इन्द्र के समान सुशोभित हुए। (21)
  • तदनन्तर रणवाद्यों के घोष तथा शुभ एवं मांगलिक स्तुतियों के साथ यात्रा करते हुए वीर अर्जुन की मागधजन स्तुति करने लगे। (22)
  • विजयसूचक आशीर्वाद तथा पुण्याहवाचन के साथ सूत, मागध एवं बन्दीजनों का शब्‍द रणवाद्यों की ध्वनि से मिलकर उन सबकी प्रसन्नता को बढ़ा रहा था। (23)
  • अर्जुन के प्रस्थान करने पर पीछे से मंगलमय पवित्र एवं सुगन्धयुक्त वायु बहने लगी, जो अर्जुन का हर्ष बढ़ाती हुई उनके शत्रुओं का शोषण कर रही थी। (24)
  • माननीय महाराज! उस समय बहुत-से ऐसे शुभ शकुन प्रकट हुए, जो पाण्डवों की विजय और आपके सैनिकों की पराजय की सूचना दे रहे थे। (25)
  • अर्जुन ने अपने दाहिने प्रकट होने वाले उन विजयसूचक शुभ लक्षणों को देखकर महाधनुर्धर सात्यकि से इस प्रकार कहा। (26)
  • 'शिनिप्रवर युयुधान! आज जैसे ये शुभ लक्षण दिखायी देते हैं, उनसे युद्ध में मेरी निश्चित विजय दृष्टिगोचर हो रही है।' (27)
  • 'अतः मैं वहीं जाऊँगा, जहाँ सिधुंराज जयद्रथ यमलोक में जाने की इच्छा से मेरे पराक्रम की प्रतीक्षा कर रहा है।' (28)
  • 'मेरे लिये सिधुंराज जयद्रथ का वध जैसे अत्यन्त महान कार्य है, उसी प्रकार धर्मराज की रक्षा भी परम महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है।' (29)
  • 'महाबाहो! आज तुम्हीं राजा युधिष्ठिर की सब ओर से रक्षा करो। जिस प्रकार वे मेरे द्वारा सुरक्षित होते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे द्वारा भी उनकी सुरक्षा हो सकती है।' (30)
  • 'मैं संसार में ऐसे किसी वीर को नहीं देखता, जो युद्ध में तुम्हें पराजित कर सके। तुम संग्राम भूमि में साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के समान हो। साक्षात देवराज इन्द्र भी तुम्हें नहीं जीत सकते।' (31)
  • 'नरश्रेष्ठ! इस कार्य के लिये मैं तुम पर अथवा महारथी प्रद्युम्न पर ही पूरा भरोसा करता हूँ। सिंधुराज जयद्रथ का वध तो मैं किसी की सहायता की अपेक्षा किये बिना ही कर सकता हूँ।' (32)
  • 'सात्वतवीर! तुम किसी प्रकार भी मेरा अनुसरण न करना। तुम्हें सब प्रकार से राजा युधिष्ठिर की ही पूर्णरूप से रक्षा करनी चाहिये।' (33)
  • 'जहाँ महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण विराजमान हैं और मैं भी उपस्थित हूँ, वहाँ अवश्‍य ही कोई कार्य बिगड़ नहीं सकता है।' (34)
  • अर्जुन के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का संहार करने वाले सात्यकि 'बहुत अच्छा' कहकर जहाँ राजा युधिष्ठिर थे, वहीं चले गये। (35)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञापर्व में अर्जुनवाक्यविषयक चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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