महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 78 श्लोक 18-44

अष्‍टसप्‍ततितम (78) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व:अष्‍टसप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 18-44 का हिन्दी अनुवाद
  • ‘बेटा। तुम्‍हारी यह तरुणी पत्नी तुम्‍हारे विरहशोक में डूबी हुई है। जिसका बछड़ा खो गया हो, उस गाय की भाँति व्‍याकुल है। मैं इसे कैसे धीरज बंधाऊँगी?' (18)
  • ‘यह उत्तरा जाति से उत्तम, सुशील, प्रियभाषिणी, यशस्विनी तथा मेरी प्‍यारी बहू है। यह सुकुमारी है। इसके नेत्र बड़े-बड़े और मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति परम मनोहर है। इसके अंग नूतन पल्लवों के समान कृश हैं। यह मतवाले हाथी के समान मंद गति से चलने वाली है। इसके ओठ बिम्बफल के समान लाल हैं। बेटा अभिमन्‍यु। तुम मेरी इस बहू को धीरे-धीरे हृदय से लगाकर आनन्दित करो।
  • ‘अहो वत्‍स। जब पुत्र के होने का फल मिलने का समय आया है, तब तुम मुझे अपने दर्शनों के लिये भी तरसती हुई छोड़कर असमय में ही चल बसे। (19)
  • ‘निश्चय ही काल की गति बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी अत्‍यन्‍त दुर्बोध है, जिसके अधीन होकर तुम श्रीकृष्‍ण- जैसे संरक्षक के रहते हुए संग्राम-भूमि में अनाथ की भाँति मारे गये।' (20)
  • ‘वत्‍स। यज्ञकर्ता, दानी, जितेनिद्रय, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण, ब्रह्मचारी, पुण्‍यतीर्थों में नहाने वाले, कृतज्ञ, उदार, गुरुसेवा-परायण और सहस्‍त्रों की संख्‍या में दक्षिणा देने वाले धर्मात्‍मा पुरुषों को जो गति प्राप्‍त होती है, वही तुम्‍हें भी मिले।' (21-22)
  • ‘संग्राम में युद्धतत्‍पर हो कभी पीछे पैर न हटाने वाले और शत्रुओं को मारकर मरने वाले शूरवीरों को जो गति प्राप्‍त होती है, वही तुम्‍हें भी मिले।' (23)
  • ‘सहस्‍त्र गोदान करने वाले, यज्ञ के लिये दान देने वाले तथा मन के अनुरुप सब सामग्रियों सहित निवास स्‍थान प्रदान करने वाले पुरुषों को शुभ गति प्राप्‍त होती है, वही तुम्‍हें भी मिले।' (24)
  • ‘जो शरणागत वत्सल ब्राह्मणों के लिये निधि स्‍थापित करते हैं तथा किसी भी प्राणी को दण्‍ड नहीं देते, उन्‍हें जिस गति की प्राप्ति होती है, बेटा। वही गति तुम्‍हें भी प्राप्‍त हो।' (25)
  • ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले मुनि ब्रह्मचर्य के द्वारा जिस गति को पाते है, बेटा। वही गति तुम्‍हें भी सुलभ हो।' (26)
  • पुत्र। सदाचार के पालन से राजाओं को तथा सुरक्षित पुण्य के प्रभाव से पवित्र हुए चारों आश्रमों के लोगों को जो सनातन गति प्राप्‍त होती है; दीनों पर दया करने वाले, उत्तम वस्‍तुओं को घर में बाँटकर उपयोग में लेने वाले तथा चुगली से दूर रहने वाले लोगों को जो गति प्राप्‍त होती है, वही गति तुम्‍हें भी मिले।' (27-28)
  • ‘वत्‍स। व्रतपरायण, धर्मशील, गुरुसेवक एवं अतिथि को निराश न लौटाने वाले लोगों को जिस गति की प्राप्ति होती है, वह तुम्‍हें भी प्राप्‍त हो।' (29)
  • ‘बेटा। जो लोग भारी-से-भारी कठिनाइयों में और संकटों में पड़ने तथा शोकाग्नि से दग्‍ध होने पर भी धैर्य धारण करके अपने आपको स्थिर रखते हैं, उन्‍हें मिलने वाली गति को तुम भी प्राप्‍त करो।' (30)
  • ‘जो सदा इस जगत में माता-पिता की सेवा करते हैं और अपनी ही स्‍त्री में अनुराग रखते हैं, उनकी जैसी गति होती है, वही तुम्‍हें भी प्राप्‍त हो।' (31)
  • ‘पुत्र। ऋतुकाल में अपनी स्‍त्री से सहवास करते हुए परायी स्त्रियों से सदा दूर रहने वाले मनीषी पुरुषों को जो गति प्राप्‍त होती है, वही तुम्‍हें भी मिले।' (32)
  • ‘जो ईर्ष्‍या–द्वेष से दूर रहकर समस्‍त प्राणियों को समभाव से देखते हैं तथा जो किसी के मर्मस्‍थान को वाणी द्वारा चोट नहीं पहुँचाते एवं सबके प्रति क्षमाभाव रखते हैं, उनकी जो गति होती है, उसी को तुम भी प्राप्‍त करो।' (33)
  • ‘पुत्र। जो मद्य और मांस का सेवन नहीं करते, मद, दम्‍भ और असत्य से अलग रहते है और दूसरों को संताप नहीं देते हैं, उन्‍हें मिलने वाली सद्गति तुम्‍हें भी प्राप्‍त हो।' (34)
  • ‘बेटा। सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के ज्ञाता, लज्जाशील, ज्ञान से परितृप्‍त, जितेन्द्रिय श्रेष्‍ठपुरुष जिस गति को पाते है, उसी को तुम भी प्राप्‍त करो।' (35)
  • इस प्रकार उत्तरासहित विलाप करती हुई दीन-दुखी एवं शोक से दुर्बल सुभद्रा के पास उस समय द्रौपदी भी आ पहुँची। (36)
  • राजन। वे सब-की-सब अत्‍यन्‍त दुखी हो इच्‍छानुसार रोती और विलाप करती हुई पगली-सी हो गयीं और मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। (37)
  • तब कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण अत्‍यन्‍त दुखी हो उन सबको होश में लाने के लिये उपचार करने लगे। उन्‍होंने अपनी दु:खिनी बहिन सुभद्रा पर जल छिड़कर नाना प्रकार के हितकर वचन कहते हुए उसे आश्वासन दिया। पुत्रशोक से मर्माहत हो वह रोती हुई काँप रही थी और अचेत-सी हो गयी थी। उस अवस्‍था में भगवान ने उससे कहा। (38-39)
  • ‘सुभद्रे। तुम पुत्र के लिये शोक न करो। द्रुपदकुमारी! तुम उत्तरा को धीरज बँधाओ। वह क्षत्रियशिरोमणि सर्वश्रेष्‍ठ गति को प्राप्‍त हुआ है।' (40)
  • ‘सुमुखि। हमारी इच्‍छा तो यह है कि हमारे कुल में और भी जितने पुरुष है, वे सब यशस्‍वी अभिमन्‍यु की ही गति प्राप्‍त करें।' (41)
  • ‘तुम्‍हारे महारथी पुत्र ने अकेले ही आज जैसा पराक्रम किया है, उसे हम और हमारे सुहृद भी कार्यरुप में परिणत करें।' (42)
  • इस प्रकार बहिन सुभद्रा, उत्तरा तथा द्रौपदी को आश्वासन देकर शत्रुदमन महाबाहु श्रीकृष्‍ण पुन: अर्जुन के ही पास चले आये। (43)
  • राजन। तदनन्‍तर श्रीकृष्‍ण राजाओं, बन्‍धुजनों तथा अर्जुन से अनुमति ले अन्‍त:पुर में गये और वे राजा लोग भी अपने-अपने शिबिर में चले गये। (44)

इस प्रकार श्री माहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञा पर्व में सुभद्रा-विलापविषयक अठहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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