महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 20 श्लोक 22-41

विंश (20) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्‍तकवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: विंश अध्याय: श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद
  • धृष्टद्युम्न बोले– उत्‍तम व्रत का पालन करने वाले नरेश! द्रोणाचार्य कितना ही प्रयत्‍न क्‍यों न करें, आप उनके वश में नहीं होंगे। आज मैं सेवकों सहित द्रोणाचार्य को रोकूँगा। (22)
  • कुरूनन्‍दन! मेरे जीते-जी आपको किसी प्रकार भय नहीं करना चाहिये। द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में मुझे किसी प्रकार जीत नहीं सकते।
  • संजय कहते हैं- महाराज! ऐसा कहकर कबूतर के समान रंग वाले घोड़े रखने वाले महाबली द्रुपदपुत्र ने बाणों का जाल-सा बिछाते हुए स्‍वयं द्रोणाचार्य पर धावा किया। (23)
  • जिसका दर्शन अनिष्‍ट का सूचक था, उस धृष्‍टद्युम्न को सामने खड़ा देख द्रोणाचार्य क्षणभर में अत्‍यन्‍त अप्रसन्‍न और उदास हो गये। (25)

महाराज! वह द्रोणाचार्य का वध करने के लिये पैदा हुआ था; इसलिये उसे देखकर मर्त्‍यभाव का आश्रय ले द्रोणाचार्य मोहित हो गये।

  • राजन! शत्रुओं का संहार करने वाले आपके पुत्र दुर्मुख ने द्रोणाचार्य को उदास देख धृष्टद्युम्न को आगे बढ़ने से रोक दिया। वह द्रोणाचार्य का प्रिय करना चाहता था। (26)
  • भरतनन्‍दन! उस समय शूरवीर धृष्‍टद्युम्न तथा दुर्मुख में तुमुल युद्ध होने लगा, धीरे-धीरे उसने अत्‍यन्‍त भयंकर रूप धारण कर लिया। (27)
  • धृष्‍टद्युम्न ने शीघ्र ही अपने बाणों के जाल से दुर्मुख को आच्‍छादित करके महान बाणसमूह द्वारा द्रोणाचार्य को भी आगे बढ़ने से रोक दिया। (28)
  • द्रोणाचार्य को रोका गया देख आपका पुत्र अत्‍यन्‍त प्रयत्‍न करके नाना प्रकार के बाण-समूहों द्वारा धृष्‍टद्युम्न को मोहित करने लगा। (29)
  • वे दोनों पांचाल राजकुमार और कुरुकुल के प्रधान वीर जब युद्ध में पूर्णत: आसक्‍त हो रहे थे, उसी समय द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर की सेना को अपनी बाण-वर्षा द्वारा अनेक प्रकार से तहस-नहस कर डाला। (30)
  • जैसे वायु के वेग से बादल सब ओर से फट जाते हैं, उसी प्रकार युधिष्ठिर की सेनाएँ भी कहीं-कहीं से छिन्‍न-भिन्‍न हो गयीं। (31)
  • राजन! दो घड़ी तक तो वह युद्ध देखने में बड़ा मनोहर लगा; परंतु आगे चलकर उनमें पागलों की तरह मर्यादा शून्‍य मार-काट होने लगी। (32)
  • नरेश्वर! उस समय वहाँ आपस में अपने-पराये की पहचान नहीं हो पाती थी। केवल अनुमान अथवा नाम बताने से ही शत्रु-मित्र का विचार करके युद्ध हो रहा था। (33)
  • उन वीरों के मुकुटों, हारों, आभूषणों तथा कवचों में सूर्य के समान प्रभामयी रश्मियाँ प्रकाशित हो रही थीं। (34)
  • उस युद्धस्‍थल में फहराती हुई पताकाओं से युक्‍त रथों, हाथियों और घोड़ों का रूप बकपंक्तियों से चितकबरे प्रतीत होने वाले मेघों के समान दिखायी देता था। (35)
  • पैदल पैदलों को मार रहे थे, प्रचण्‍ड घोड़े घोड़ों का संहार कर रहे थे, रथी रथियों का वध करते थे और हाथी बड़े-बड़े हाथियों को चोट पहुँचा रहे थे। (36)
  • जिनके ऊपर ऊँची पताकाएँ फहरा रही थीं, उन गजराजों का शत्रुपक्ष के बड़े-बड़े़ हाथियों के साथ क्षण भर में अत्‍यन्‍त भयंकर संग्राम छिड़ गया। (37)
  • वे एक-दूसरे से अपने शरीरों को सटाकर आपस में खींचा-तानी करते थे। दाँतों से दाँतों पर टक्‍कर लगने से धूम सहित आग-सी उठने लगती थी। (38)
  • उन हाथियों की पीठ पर फहराती हुई पताकाएँ वहाँ से टूट-टूटकर गिरने लगीं। उनके दाँतो के आपस में टकराने से आग प्रकट होने लगी। इससे वे आकाश में छाये हुए बिजली सहित मेघों के समान जान पड़ते थे। (39)
  • कोई हाथी दूसरे योद्धाओं को उठाकर फेंकते थे, कोई गरज रहे थे और कुछ हाथी मरकर धराशायी हो रहे थे। उनकी लाशों से आच्‍छादित हुई भूमि शरदऋतु के आरम्‍भ में मेघों से आच्‍छादित आकाश के समान प्रतीत होती थी। (40)
  • बाण, तोमर तथा ऋष्टि आदि अस्‍त्र–शस्‍त्रों से मारे जाते हुए गजराजों का चीत्‍कार प्रलयकाल के मेघों की गर्जना के समान जान पड़ता था। (41)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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