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महाभारत: द्रोण पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद
- राजेन्द्र! जिस समय गंगानन्दन भीष्म रथ से गिरे थे, उस समय सूर्य पश्चिम दिशा में ढल चुके थे। यद्यपि महात्मा गंगानन्दन भीष्म ने उन सबको युद्ध बंद कर देने की सलाह दी थी, तथापि काल से विवेक शक्ति नष्ट हो जाने के कारण वे भरतश्रेष्ठ क्षत्रिय उनके हितकर वचन की अवहेलना करके अमर्ष के वशीभूत हो हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये तुरंत ही युद्ध के लिये निकल पड़े। (21-22)
- पुत्र सहित आपके मोह[1]से और शान्तनुनन्दन भीष्म का वध हो जाने से समस्त राजाओं सहित सम्पूर्ण कुरूवंशी मृत्यु के अधीन हो गये हैं। (23)
- जैसे हिसंक जन्तुओं से भरे हुए वन में बिना रक्षक की भेड़ और बकरियाँ भय से उद्विग्न रहती हैं, उसी प्रकार आपके पुत्र और सैनिक देवव्रत से रहित हो मन-ही-मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठे थे। (24)
- भरतशिरोमणि भीष्म के धराशायी हो जाने पर कौरव-सेना नक्षत्ररहित आकाश, वायुशून्य अन्तरिक्ष, नष्ट हुई खेती वाली भूमि, असंस्कृत वाणी तथा राजा बलि के बाँध लिये जाने पर नायकविहीन हुई असुरों की सेना के समान अद्विग्न, असमर्थ और श्रीहीन हो गयी। (25-26)
- गंगानन्दन भरतश्रेष्ठ भीष्म के धराशायी होने पर भरत-वंशियों की सेना विधवा सुन्दरी के समान, जिसका पानी सूख गया हो, उस नदी के समान, जिसे भेड़ियों ने वन में घेर रक्खा हो और जिसका साथी यूथप मार डाला गया हो, उस चितकबरी मृगी के समान तथा शरभ ने जिसमें रहने वाले सिंह को मार डाला हो, उस विशाल कन्दरा के समान भयभीत, विचलित और श्रीहीन जान पड़ती थी। (27-28)
- वीर और बलवान पाण्डव अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक मार गिराने वाले थे, उनके द्वारा अत्यन्त पीड़ित होकर आपकी सेना महासागर में चारों और से वायु के थपेड़े खाकर टूटी हुई नौका के समान बड़ी विपत्ति में फँस गयी। (29)
- उस समय आपकी सेना के घोड़े, रथ और हाथी सब अत्यन्त व्याकुल हो उठे थे। उसके अधिकांश सैनिक अपने प्राण खो चुके थे। उसका दिल बैठ गया था और वह अत्यन्त दीन हो रही थी। (30)
- उस सेना के भिन्न-भिन्न सैनिक, नरेशगण अत्यन्त भयभीत हो देवव्रत भीष्म के बिना मानो पाताल में डूब रहे थे। (31)
- उस समय कौरवों ने कर्ण का स्मरण किया। जैसे गृहस्थ का मन अतिथि की ओर तथा आपत्ति में पड़े हुए मनुष्य का मन अपने मित्र या भाई-बन्धु की ओर जाता है, उसी प्रकार कौरवों का मन समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ एवं तेजस्वी वीर कर्ण की ओर गया; क्योंकि वही भीष्म के समान पराक्रमी समझा जाता था। भारत! वहाँ सब राजा ‘कर्ण! कर्ण!’ की पुकार करने लगे। (32-33)
- वे कहने लगे कि ‘राधानन्दन सूतपुत्र कर्ण हमारा हितैषी है। हमारे लिये अपना शरीर निछावर किये हुए है। अपने मन्त्रियों और बन्धुओं के साथ महायशस्वी कर्ण ने दस दिनों तक युद्ध नहीं किया है। उसे शीघ्र बुलाओ। देर न करो। (34)
- राजन! बात यह हुई थी कि जब बल और पराक्रम से सुशोभित रथियों की गणना की जा रही थी, उस समय समस्त क्षत्रियों के देखते-देखते भीष्म जी ने महाबाहु नरश्रेष्ठ कर्ण को अर्धरथी बता दिया। यद्यपि वह दो रथियों के समान है। (35)
- रथियों और अतिरथियों की संख्या में वह अग्रगण्य और शूरवीर के सम्मान का पात्र है। रणक्षेत्र में असुरों सहित सम्पूर्ण देवेश्ररों के साथ भी वह युद्ध करने का उत्साह रखता है। (37)
- राजन! अर्धरथी बताने के कारण ही क्रोधवश उसने गंगानन्दन भीष्म से कहा– ‘कुरूनन्दन! आपके जीते-जी मैं कदापि युद्ध नहीं करूँगा। कौरव! यदि आप उस महासमर में पाण्डुपुत्रों को मार डालेंगे तो मैं दुर्योधन की अनुमति लेकर वन को चला जाऊँगा। (38-39)
- ‘अथवा यदि पाण्डवों के द्वारा मारे जाकर आप स्वर्ग-लोक में पहुँच गये तो मैं एकमात्र रथ की सहायता से उन सबको मार डालूँगा, जिन्हें आप रथी मानते हैं’।
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