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महाभारत: द्रोणपर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद
उस समय द्रोणाचार्य में अमर्ष और पराक्रम दोनों का समावेश हुआ। उन्होंने धनुष की प्रत्यंचा को पोंछकर तूणीर से बाण निकाला और उस महान बाण एवं धनुष को हाथ में लेकर सारथि से इस प्रकार कहा।
द्रोणाचार्य बोले- सारथे! वहीं चलों, जहाँ सुन्दर श्वेतछत्र धारण किये धर्मराज राजा युधिष्ठिर खड़े हैं।
यह धृतराष्ट्र की सेना तितर-बितर हो अनेक भागों में बँटी जा रही है। मैं युधिष्ठिर को रोककर इस सेना को स्थिर करूँगा[1]।
तात! ये पाण्डव, मत्स्य, पांचाल और समस्त सोमक वीर मुझ पर बाण-वर्षा नहीं कर सकते।
अर्जुन ने भी मेरी ही कृपा से बड़े-बड़े अस्त्रों को प्राप्त किया है। तात! वे भीमसेन और सात्यकि भी मुझसे लड़ने का साहस नहीं कर सकते।
अर्जुन मेरे ही प्रसाद से महान धनुर्धर हो गये हैं। धृष्टद्युम्न भी मेरे ही दिये हुए अस्त्रों का ज्ञान रखता है।
तात सारथे! विजय की अभिलाषा रखने वाले वीर के लिये यह प्राणों की रक्षा करने का अवसर नहीं है। तुम स्वर्ग प्राप्ति का उदेश्य लेकर यश और विजय के लिये आगे बढ़ो।
संजय कहते हैं- राजन! इस प्रकार प्रेरित होकर सारथि अश्वहृदय नामक मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके घोड़ों का हर्ष बढ़ाता हुआ आवरणयुक्त प्रकाशमान एवं तेजस्वी रथ के द्वारा शीघ्रतापूर्वक द्रोणाचार्य को आगे ले चला
उस समय करूष, मत्स्य, चेदि, सात्वत, पाण्डव तथा पांचाल वीरों ने एक साथ आकर द्रोणाचार्य को रोका।
- तब लाल घोड़ों वाले द्रोणाचार्य कुपित हो चार दाँतों वाले गजराज के समान पाण्डव सेना में घुसकर युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। (19)
- युधिष्ठिर ने गीध की पाँखों से युक्त पैने बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को बींध डाला। तब द्रोणाचार्य ने उनका धनुष काटकर बड़े वेग से उन पर आक्रमण किय। (20)
- उस समय पांचालों के यश को बढ़ाने वाले कुमार ने, जो युधिष्ठिर के रथ-चक्र की रक्षा कर रहे थे, आते हुए द्रोणाचार्य को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्र को रोकती है। (21)
- कुमार के द्वारा द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य को रोका गया देख पाण्डव सेना में जोर-जोर से सिंहनाद होने लगा और सब लोग कहने लगे 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा'। (22)
- कुमार ने उस महायुद्ध में कुपित हो बारंबार सिंहनाद करते हुए एक बाण द्वारा द्रोणाचार्य की छाती मे चोट पहुँचायी। (23)
- इतना ही नहीं, उस महाबली कुमार ने कई हजार बाणों द्वारा रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य को रोक दिया; क्योंकि उनके हाथ अस्त्र-संचालन की कला में दक्ष थे और उन्होंने परिश्रम को जीत लिया था। (24)
- परंतु द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने शूर, आर्यव्रती एवं मन्त्रास्त्रविधा में परिश्रम किये हुए चक्र-रक्षक कुमार को परास्त कर दिया। (25)
- राजन! भरद्वाजनन्दन विप्रवर द्रोणाचार्य आपकी सेना के संरक्षक थे। वे पाण्डव सेना के बीच में घुसकर सम्पूर्ण दिशाओं में विचरने लगे। (26)
- उन्होंने शिखण्डी को बारह, उत्तमौजा को बीस, नकुल को पाँच और सहदेव को सात बाणों से घायल करके युधिष्ठिर को बारह, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को तीन-तीन, सात्यकि को पाँच और विराट को दस बाणों से बींध डाला। (27-28)
- राजन! उन्होंने रणक्षेत्र में मुख्य-मुख्य योद्धाओं पर धावा करके उन सबको क्षोभ में डाल दिया और कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को पकड़ने के लिये उन पर वेग से आक्रमण किया। (29)
- राजन! उस समय वायु के थपेड़ों से विक्षुब्ध हुए महासागर के समान क्रोध में भरे हुए महारथी द्रोणाचार्य को राजा युगन्धर ने रोक दिया। (30)
- तब झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा युधिष्ठिर को घायल करके द्रोणाचार्य ने एक भल्ल नामक बाण द्वारा मारकर युगन्धर को रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। (31)
- यह देख विराट, द्रुपद, केकय, सात्यकि, शिबि, पांचाल देशीय व्याघ्रदत्त तथा पराक्रमी सिंहसेन- ये तथा और भी बहुत-से नरेश राजा युधिष्ठिर की रक्षा करने के लिये बहुत से सायकों की वर्षा करते हुए द्रोणाचार्य की राह रोककर खड़े हो गये। (32-33)
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