महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 139 श्लोक 96-113

एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम (139) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय: श्लोक 96-113 का हिन्दी अनुवाद

‘दुर्बुद्धि पाण्डव! जहाँ अनेक प्रकार की खाने पीने की वस्तुएँ रखी हों, तू वहीं रहने के योग्य है। युद्धों में तुझे कभी नहीं आना चाहिये। ‘भीम! वन में रहकर तू फल मूल और फूल खाकर व्रत एवं नियम आदि पालन करने के योग्य है। युद्ध कौशल तुझ में नाम मात्र को भी नहीं है। ‘वृकोदर! कहाँ युद्ध और कहाँ मुनिवृत्ति। जा, जा, वन में चला जा। तात! तुझमें युद्ध की योग्यता नहीं है। तू तो वनवास का ही प्रेमी है। ‘मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूँ। तू मत्स्यराज विराट का नौकर एक रसोईया रहा है। वृकोदर! तू तो घर में रसोईये, भृत्यजनों तथा दासों को बहुत जल्दी भोजन तैयार करने के लिये प्रेरणा देते हुए क्रोध से उन्हें डाँटने और मारने पीटने की योग्यता रखता है। ‘दुर्मति कुन्ती कुमार भीम! अथवा तू मुनि होकर वन में चला जा। वहाँ इधर उधर से फल ले आ और खा। तू युद्ध में निपुण नहीं है। ‘वृकोदर! तू फल मूल खाने और अतिथि सत्कार करने में समर्थ है। मैं तुझे हथियार उठाने के योग्य ही नहीं मानता’। प्रजा पालक नरेश! कर्ण ने बाल्यावस्था में जो अप्रिय वृत्तान्त घटित हुए थे, उन सबका उल्लेख करते हुए बहुत सी रूखी बातें सुनायीं। तत्पश्चात वहाँ छिपे हुए भीमसेन का कर्ण ने पुनः धनुष से स्पर्श किया और उस समय उनका उपहास करते हुए फिर कहा- ‘आर्य! तुझे और लोगों के साथ युद्ध करना चाहिये। मेरे जैसे वीरों के साथ नहीं। मेरे जैसे योद्धाऔ से जूझने वालों की ऐसी ही अथवा इससे भी बुरी दशा होती है। ‘अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहीं चला जा। वे रणभूमि में तेरी रक्षा करेंगे। अथवा कुन्ती कुमार! तू घर जा। बच्चे! तुझे युद्ध से क्या लाभ है?’

कर्ण के ये अत्यन्त कठोर वचन सुनकर भीमसेन ठठाकर हँस पड़े और सबके सुनते हुए उससे इस प्रकार बोले - ‘अरे, दुष्ट! मैंने तुझे एक बार नहीं बारंबार हराया है; फिर क्यों व्यर्थ अपने ही मुँह से अपनी बड़ाई कर रहा है। संसार में पूर्व पुरुषों ने देवराज इन्द्र की भी कभी जय और कभी पराजय होती देखी है। ‘नीच कुल में पैदा हुए कर्ण! आ, मेरे साथ मल्ल युद्ध कर ले। जैसे मैंने महान बलशाली महाभोगी कीचक को पीस डाला था, उसी प्रकार इन समसत राजाओं के देखते-देखते मैं तुझे अभी मौत के हवाले कर दूँगा’। भीमसेन का यह अभिप्राय जानकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कर्ण समस्त धनुर्धरों के सामने ही उस युद्ध से हट गया।

राजन! इस प्रकार कर्ण ने भीमसेन को रथहीन करके जब वृष्णिवंश के सिंह भगवान श्रीकृष्ण और महामना अर्जुन के सामने ही अपनी इतनी प्रशंसा की, तब श्रीकृष्ण की प्रेरणा से कपिध्वज अर्जुन ने शिला पर स्वच्छ किये हुए बहुत से बाणों को सूत पुत्र कर्ण पर चलाया। तत्पश्चात अर्जुन की भुजाओं से छोड़े गये तथा गाण्डीव धनुष से छूटे हुए वे सुवर्ण भूषित बाण कर्ण के शरीर में उसी प्रकार घुस गये, जैसे हंस क्रौन्च पर्वत की गुफाओं में समा जाते हैं। इस प्रकार धनंजय ने गाण्डीव धनुष से छोड़े गये रोष भरे सर्पों के समान बाणों द्वारा सूत पुत्र कर्ण को भीमसेन से दूर हटा दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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