महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 126 श्लोक 39-49

षड्विंशत्यधिकशतकम (126) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: षड्विंशत्यधिकशतकम अध्याय: श्लोक 39-49 का हिन्दी अनुवाद

भीमसेन! हमें उसके जाने का ही पता है, पुनः लौटने का नहीं। अर्जुन की अंग कान्ति श्याम है। वह नवयुवक, निद्रा पर विजय पाने वाला, देखने में सुन्दर और महारथी है। ‘उसकी छाती चौड़ी और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं। उसका पराक्रम मतवाले हाथी के समान है, आँखें चकोर के नेत्रों के समान विशाल हैं और उसके मुख एवं ओष्ठ लाल-लाल हैं। वह शत्रुओं का भय बढ़ाता है। ‘अर्जुन मेंरे प्रिय और हित के लिए इन्द्र लोक से यहाँ आया है। वह वृद्धजनों का सेवक, धैर्यवान, कृतज्ञ तथा सत्यप्रतिज्ञ है। वह धनंजय शत्रुओं की विशाल एवं अपार सेना में घुसा है। शत्रुनाशन अर्जुन के उस भयंकर सेना में प्रवेश करने पर मैंने सात्वत वीर सात्यकि को उसके चरणों का अनुगामी बनाकर भेजा है। भीमसेन! सात्यकि के भी मुझे जाने का ही पता है, लौटने का नहीं। ‘शत्रुदमन महाबाहु भीम! तुम्हारा कल्याण हो। यही मेरे शोक का कारण है। अर्जुन और सात्यकि के लिये ही मैं दुखी हो रहा हूँ। जैसे बारंबार घी डालने से आग प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार मेरी शोकाग्नि बढ़ती जाती है। मैं अर्जुन का कोई चिह्न नहीं देखता, इसी से मुझ पर मोह छा रहा है। ‘उन सात्वतवंशी पुरुषसिंह महारथी सात्यकि का भी पता लगाओ। वे तुम्हारे छोटे भाई महारथी अर्जुन के पीछे गये हैं।

‘उन महाबाहु सात्यकि को न देखने के कारण भी मैं भारी घबराहट में पड़ गया हूँ। पार्थ के मारे जाने पर अवश्य ही सात्यकि भी आगे होकर युद्ध कर रहे हैं। ‘उनका कोई दूसरा सहायक नहीं है। इससे मुझे बड़ी घबराहट हो रही है। निश्चय ही उनके मारे जाने पर युद्ध कला कोविद भगवान श्रीकृष्ण युद्ध कर रहे हैं। ‘परंतप! अर्जुन और सात्यकि के जीवन के विषय में जो मेरे मन में संताप उत्पन्न हो गया है, वह दूर नहीं हो रहा है। अतः कुन्तीनन्दन! तुम वहीं जाओ, जहाँ अर्जुन और महापराक्रमी सात्यकि गये हैं। धर्मज्ञ! मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ। यदि तुम मेरी आज्ञा का पालन करना उचित मानते हो तो ऐसा ही करो। तुम्हें अर्जुन की उतनी खोज नहीं करनी है, जितनी सात्यकि की। पार्थ! सात्यकि ने मेरा प्रिय करने की इच्छा से सव्यसाची अर्जुन के उस दुर्गम एवं भयंकर पथ का अनुसरण किया है, जो अजितात्मा पुरुषों के लिये अगम्य है। ‘पाण्डु नन्दन! जब तुम भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा सात्वत वंशी वीर सात्यकि को सकुशल देखना, तब उच्च स्वर से सिंहनाद करके मुझे इसकी सूचना दे देना’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में युधिष्ठिर की चिन्ता विषयक एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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