एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: एकादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद
‘’महाबाहु माधव! इसलिये तुम आज मेरा प्रिय करने, मुझे विजय दिलाने और मेरे यश की वृद्धि करने के लिये युद्ध स्थल में राजा युधिष्ठिर की रक्षा करेंगे। ‘प्रभो! इस प्रकार द्रोणाचार्य से निरन्तर भय मानते हुए सव्यसाची अर्जुन ने आपको मेरे पास धरोहर के रुप में रख छोड़ा है।’ महाबाहो! प्रभो! मैं प्रतिदिन युद्धस्थल में रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न के सिवा दूसरे किसी वीर को ऐसा नहीं देखता; जो द्रोणाचार्य के सामने खड़ा होकर उनसे युद्ध कर सके। ‘अर्जुन मुझे भी बुद्धिमान द्रोणाचार्य का सामना करने में समर्थ योद्धा मानते हैं। महीपते! मैं अपने आचार्य की इस सम्भावना को तथा उनके उस आदेश को न तो पीछे ढकेल सकता हूँ और न आपको ही त्याग सकता हूँ। ‘द्रोणाचार्य अमेद्य कवच से सुरक्षित है। वे शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने के कारण रणक्षेत्र में अपने विपक्षी को पाकर उसी प्रकार क्रीड़ा करते हैं, जैसे कोई बालक पृथ्वी के साथ खेल रहा हों। ‘यदि कामदेव के अवतार श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न यहाँ हाथ में लेकर खड़े होते तो उन्हें मैं आपको सौंप देता। वे अर्जुन के समान ही आपकी रक्षा कर सकते थे। ‘आप पहले अपनी रक्षा को व्यवस्था कीजिये। मेरे चले जाने पर कौन आपका संरक्षण चलाने वाला है, जो रणक्षेत्र में तब तक द्रोणाचार्य का सामना करता रहे, जब तक कि मैं अर्जुन के पास जाता (और लौटता) हूँ। ‘महाराज! आज आपके मन में अर्जुन के लिये भय नहीं होना चाहिये। वे महाबाहु किसी कार्य भार को उठा लेने पर कभी शिथिल नहीं होते हैं। ‘राजन! जो सौवीर, सिन्धु तथा पुरुदेश के योद्धा हैं, जो उत्तर और दक्षिण के निवासी एवं अन्य महारथी हैं तथा जो कर्ण आदि श्रेष्ठ रथी बताये गये हैं; वे कुपित हुए अर्जुन की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। ‘नरेश्वर! देवता, असुर, मनुष्य, राक्षस, किन्नर तथा महान सर्वागणों सहित यह समूची पृथ्वी और सभी स्थावर-जंगम प्राणी युद्ध के लिये उद्यत हो जायें, तो भी सब मिलकर भी युद्धस्थल में अर्जुन का सामना नहीं कर सकते है। ‘महाराज! ऐसा जानकर अर्जुन के विषय में आपका भय दूर हो जाना चाहिये। जहाँ सत्य पराक्रमी और महा धनुर्धर वीर श्रीकृष्ण एवं अर्जुन विद्यमान हैं, वहाँ किसी प्रकार भी कार्य में व्याघात नहीं हो सकता है। ‘आपके भाई अर्जुन में जो दैवीशक्ति, अस्त्र विद्या की निपुणता, योग, युद्धस्थल में असमर्थ, कृतज्ञता और दया आदि सदु्ण हैं, उनका आप बारंबार चिन्तन कीजिये। ‘राजन्! मैं आपका सहायक रहा हूँ, यदि मैं भी अर्जुन के पास चला जाता हूँ तो युद्ध में द्रोणाचार्य जिन विभिन्न अस्त्रों का प्रयोग करेंगे, उन पर भी आप अच्छी तरह विचार कर लीजिये। ‘भरतवंशी नरेश! द्रोणाचार्य आपको कैद करने की बड़ी इच्छा रखते हैं। वे अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए उसे सत्य कर दिखाना चाहते हैं। ‘अब आप अपनी रक्षा का प्रबन्ध कीजिये। पार्थ! मेरे चले जाने पर कौन आपका रक्षक होगा, जिस पर विश्वास करके मैं अर्जुन के पास चला जा। ‘महाराज! कुरुनन्दन! मैं आपको इस महासमर में किसी वीर के संरक्षण में रखे बिना कही नहीं जाऊँगा। यह मैं आप से सच्ची बात कहता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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