महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 17-33

द्वयधिकद्विशततम (202) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: द्वयधिकद्विशततम अध्याय: 17-33 श्लोक का हिन्दी अनुवाद

वे सनातन देव इस पृथ्‍वी को धारण करने वाले तथा सम्‍पूर्ण बागीश्वरों के भी ईश्‍वर हैं। उन्‍हें जीतना असम्‍भव है। वे जगदीश्‍वर जन्‍म, मृत्‍यु और जरा आदि विकारों से परे हैं। वे ज्ञानस्‍वरूप, ज्ञानगम्‍य तथा ज्ञान में श्रेष्‍ठ हैं। उनके स्‍वरूप को समझ लेना अत्‍यन्‍त कठिन है। वे अपने भक्‍तों को कृपा पूर्वक मनोवांछित उत्‍तम फल देने वाले है। भगवान शंकर के दिव्‍य पार्षद नाना प्रकार के रूपों में दिखायी देते हैं। उनमें से कोई वामन, कोई जटाधारी, कोई मुण्डित मस्‍तक वाले और कोई छोटी गर्दन वाले है। किन्‍हीं के पेट बड़े हैं तो किन्‍हीं के सारे शरीर ही विशाल हैं। कुछ पार्षदों के कान बहुत बड़े-बड़े हैं। वे सब बड़े उत्‍साही होते हैं। कितनों के मुख विकृत हैं और कितनों के पैर। अर्जुन! उन सबके वेष भी बड़े विकराल हैं। ऐसे स्‍वरूप वाले वे सभी पार्षद महान् देवता भगवान शंकर की सदा ही पूजा किया करते हैं। तात! उन तेजस्‍वी पुरुष के रूप में वे भगवान शंकर ही कृपा करके तुम्‍हारे आगे आगे चलते हैं।

कुन्‍तीनन्‍दन! उस रोमान्‍चकारी घोर संग्राम में अश्वत्‍थामा, कर्ण और कृपाचार्य आदि प्रहार कुशल बड़े-बड़े धनुर्धरों से सुरक्षित उस कौरव सेना को उस समय बहुरूपधारी महाधनुर्धर भगवान महेश्वर के सिवा दूसरा कौन मन से भी नष्‍ट कर सकता था। जब वे ही सामने आकर खड़े हो जायँ तो वहाँ ठहरने का साहस कोई नहीं कर सकता है? तीनों लोकों में कोई भी प्राणी उनकी समानता करने वाला नहीं है। संग्राम में भगवान शंकर के कुपित होने पर उनकी गन्‍ध से भी शत्रु बेहोश होकर काँपने लगते और अधमरे होकर गिर जाते हैं। उनको नमस्‍कार करने वाले देवता सदा स्‍वर्गलोक में निवास करते हैं। दूसरे भी जो मानव इस लोक में उन्‍हें नमस्‍कार करते हैं, वे भी स्‍वर्गलोक पर विजय पाते हैं। जो भक्त मनुष्‍य सदा अनन्‍यभाव से वरदायक देवता कल्‍याणस्‍वरूप, सर्वेश्‍वर उमानाथ भगवान रुद्र की उपासना करते हैं, वे भी इद्रलोक में सुख पाकर अन्‍त में परम गति को प्राप्‍त होते हैं।

कुन्‍तीनन्‍दन! अतः तुम भी उन शान्‍तस्‍वरूप भगवान शिव को सदा नमस्‍कार किया करो। जो रुद्र, नीलकण्‍ठ, कनिष्‍ठ, उत्‍तम तेज से सम्‍पन्‍न, जटाजूटधारी, विकराल स्‍वरूप, पिगंल नेत्र वाले तथा कुबेर को वर देने वाले हैं, उन भगवान शिव को नमस्‍कार है। जो यम के अनुकूल रहने वाले काल हैं, अव्‍यक्‍त स्‍वरूप आकाश ही जिनका केश हैं, जो सदाचार सम्‍पन्‍न, सबका कल्‍याण करने वाले, कमनीय, पिंगल नेत्र, सदा स्थित रहने वाले और अन्‍तर्यामी पुरुष हैं, जिनके केश भूरे एवं पिंगल वर्ण के हैं, जिनका मस्‍तक मुण्डित है, जो दुबले पतले और भवसागर से पार उतारने वाले हैं, जो सूर्यस्‍वरूप, उत्‍तम तीर्थ और अत्‍यन्‍त वेगशालीहैं, उन देवाधिदेव महादेव को नमस्‍कार हैं। जो अनेक रूप धारण करने वाले, सर्वस्‍वरूप तथा सबके प्रिय हैं, वल्‍कल आदि वस्‍त्र जिन्‍हें प्रिय हैं, जो मस्‍तक पर पगड़ी धारण करते हैं, जिनका मुख सुन्‍दर है, जिनके सहस्‍त्रों नेत्र हैं तथा जो वर्षा करने वाले हैं, उन भगवान शंकर को नमस्‍कार है। जो पर्वत शयन करने वाले, परम शान्‍त, यति स्‍वरूप, चीरवस्‍त्रधारी, हिरण्‍यबाहु, राजा तथा दिशाओं के अधिपति हैं। (उन भगवान शंकर को नमस्कार है)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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