महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 111-130

द्वयधिकद्विशततम (202) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: द्वयधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 111-130 का हिन्दी अनुवाद

जो सब प्रकार की ग्रहबाधाओं से पीड़ित हैं और सम्‍पूर्ण पापों में डूबे हुए हैं, वे भी यदि शरण में आ जायँ तो शरणागत वत्‍सल भगवान शिव अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर उन्‍हें पाप ताप से मुक्‍त कर देते हैं। वे ही प्रसन्‍न होने पर मनुष्‍यों को आयु, आरोग्‍य, ऐश्‍वर्य, धन और प्रचुर मात्रा में मनोवान्छित पदार्थ देते हैं तथा वे ही कुपित होने पर फिर उन सबका संहार कर डालते हैं। इन्‍द्र आदि देवताओं में उन्‍हीं का ऐश्‍वर्य बताया जाता है, वे ही ईश्‍वर होने के कारण लोक में मनुष्‍यों के शुभाशुभ कर्मों के फल देने में संलग्‍न रहते हैं। सम्‍पूर्ण कामनाओं के ईश्‍वर भी वे ही बताये जाते हैं। महाभूतों के ईश्‍वर होने से वे ही महेश्वर कहलाते हैं। वे नाना प्रकार के बहुसंख्‍यक रूपों द्वारा सम्‍पूर्ण विश्‍व में व्‍याप्‍त हैं। उन महादेव जी का जो मुख है, वह समुद्र में स्थित है।

वह ‘वडवामुख’ नाम से विख्‍यात होकर जलमय हविष्‍य का पान करता है। ये ही महादेव जी श्‍मशान भूमि में नित्‍य निवास करते हैं। वहाँ मनुष्‍य ‘वीरस्‍थानेश्‍वर’ के नाम से इनकी आराधना करते हैं। इनके बहुत से तेजस्‍वी घोर रूप है, जो लोक में पूजित होते हैं और मनुष्‍य उनका कीर्तन करते रहते हैं। उनकी महत्‍त, सर्वव्‍यापकता तथा कर्म के अनुसार लोक में इनके बहुत से यथार्थ नाम बताये जाते हैं। यजुर्वेद में भी परमात्‍मा शिव की ‘शतरुद्रिय’ नामक उत्‍तम स्‍तुति बतायी गयी है। अनन्‍त रुद्र नाम से इनका उपस्‍थान बताया गया है। जो दिव्‍य तथा मानव भोग हैं, उन सबके स्‍वामी से महादेव जी ही हैं। ये देव इस विशाल विश्‍व में व्‍याप्‍त हैं; इसलिये विभु और प्रभु कहलाते हैं। ब्राह्मण और मुनिजन इन्‍हें सबसे ज्‍येष्‍ठ बताते हैं, ये देवताओं में सबसे प्रथम है; इन्‍हीं के मुख से अग्निेदेव का प्रादुर्भाव हुआ है। ये सर्वथा (प्राणियों) का पालन करते और उन्‍हीं के साथ खेला करते हैं तथा उन पशुओं के अधिपति है; इसलिये ‘प्रशुपति’ कहे गये हैं।

इनका दिव्‍य लिंग ब्रह्मचर्य से स्थित है। ये सम्‍पूर्ण लोको में महिमान्वित करते है; इसलिये महेश्वर कहे गये हैं। ऋषि, देवता, गन्‍धर्व और अप्‍सराएँ इनके उर्ध्‍व लोक स्थित लिंग विग्रह (प्रतीक) की पूजा करती हैं। उस लिंग अर्थात प्रतीक की पूजा होने पर कल्‍याणकारी भगवान महेश्वर आनन्दित होते हैं। सुखी, प्रसन्‍न तथा हर्षोल्‍लास से परिपूर्ण होते हैं। भूत, भविष्‍य और वर्तमान तीनों कालों में इनके स्‍थावर जंगम बहुत से रूप स्थित होते हैं; इसलिये इन्‍हें ‘बहुरूप’ नाम दिया गया है। यद्यपि उनके सब ओर नेत्र हैं, तथापि उनका एक विलक्षण अग्निमय नेत्र अलग भी है, जो सदा क्रोध से प्रज्‍वलित रहता है; वे सब लोको में समाविष्‍ट होने के कारण ‘सर्व’ कहे गये हैं। उनका रूप धूम्रवर्ण का है; इसलिये वे ‘धूजंटि’ कहलाते हैं। विश्‍वेदेव उन्‍हीं में प्रतिष्ठित हैं, इसलिये उनका एक नाम ‘विश्‍वरूप’ है। वे भगवान भुवनेश्‍वर आकाश, जल और पृथ्‍वी इन अम्‍बास्‍वरूपा तीन देवियों को अपनाते, उनकी रक्षा करते हैं, इसलिये त्र्यम्‍बक कहे गये हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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