द्विनवत्यधिकशततम (192) अध्याय: द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: द्विनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद
तदनन्तर द्रुपद की सेनाओं द्वारा चारों ओर से घिरे हुए द्रोणाचार्य क्षत्रिय समूहों को दग्ध करते हुए रणभूमि में विचरने लगे। शत्रुमर्दन द्रोण ने बीस हजार क्षत्रियों का संहार करके अपने तीखे बाणों द्वारा एक लाख हाथियों का वध कर डाला। फिर वे क्षत्रियों का विनाश करने के लिये ब्रह्मास्त्र का सहारा ले बड़ी सावधानी के साथ युद्धभूमि में खड़े हो गये और धूमरहित प्रज्वलित अग्नि समान प्रकाशित होने लगे। पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न रथहीन हो गये थे। उनके सारे अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो चुके थे और वे भारी विषाद में डूब गये थे। उस अवस्था में शत्रुमर्दन बलबान भीमसेन उन महामनस्वी पांचाल वीर के पास तुरंत आ पहुँचे और उन्हें अपने रथ पर बिठाकर द्रोणाचार्य को निकट से बाण चलाते देख इस प्रकार बोले- धृष्टद्युम्न! यहाँ तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो आचार्य के साथ जुझने का साहस कर सके। अत: तुम पहले उनके वध के लिये ही शीघ्रतापूर्वक प्रयत्न करो। तुम पर ही इसका सारा भार रखा गया है। भीमसेन के ऐसा कहने पर महाबाहु धृष्टद्युम्न ने उछलकर शीघ्रतापूर्वक सारा भार सहन करने में समर्थ सुदृढ़ एवं श्रेष्ठ आयुध धनुष को उठा लिया। फिर क्रोध में भरकर बाण चलाते हुए उन्होंने रणभूमि में कठिनता से रोके जाने वाले द्रोणाचार्य को रोक देने की इच्छा से उन्हें बाणों की वर्षा द्वारा ढक दिया। संग्राम भूमि में शोभा पाने वाले वे दोनों श्रेष्ठ वीर कुपित हो नाना प्रकार के दिव्यास्त्र एवं ब्रह्मस्त्र प्रकट करते हुए एक दूसरे को आगे बढ़ने से रोकने लगे। महाराज! धृष्टद्युम्न ने रणभूमि में द्रोणाचार्य के सभी अस्त्रों को नष्ट करके उन्हें अपने महान अस्त्रों द्वारा आच्छादित कर दिया। कभी विचलित न होने वाले पांचाल वीर ने संग्राम में द्रोणाचार्य की रक्षा करने वाले बसति, शिबि, बाह्लीक और कौरव योद्धाओं का भी संहार कर डाला। राजन! अपने बाणों के समूह से सम्पूर्ण दिशाओं को सब ओर से आच्छादित करते हुए धृष्टद्युम्न किरणों द्वारा अंशुमाली सूर्य के समान प्रकाशित हो रहे थे। तदनन्तर द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न का धनुष काटकर उन्हें बाणों द्वारा घायल कर दिया और पुन: उनके मर्म स्थानों को गहरी चोट पहुँचायी, इससे उन्हें बड़ी व्यथा हुई। संजय कहते हैं- राजेन्द्र! तब अपने क्रोध को दृढ़तापूर्वक बनाये रखने वाले भीमसेन द्रोणाचार्य के उस रथ से सटकर उनसे धीरे-धीरे इस प्रकार बोले- यदि शिक्षित ब्राह्मण अपने कर्मों से असंतुष्ट हो पर धर्म का आश्रय ले युद्ध न करते तो क्षत्रियों का यह संहार न होता। प्राणियों की हिंसा न करने को ही सबसे श्रेष्ठ धर्म माना गया है। उसकी जड़ है ब्राह्मण और आप तो उन ब्राह्मणों में भी सबसे उत्तम ब्रह्मवेत्ता है। आप अपने एक पुत्र की जीविका के लिये विपरीत कर्म का आश्रय ले इस पाप-विद्या के द्वारा स्वधर्म परायण बहुसंख्यक क्षत्रियों का वध करके लज्जित कैसे नहीं हो रहे हैं? जिसके लिये आपने शस्त्र उठाया, जिसके जीवन की अभिलाषा रखकर आप जी रहे हैं, वह तो आज पीछे समरभूमि में गिरकर चिर निद्रा में सो रहा है और आपको इसकी सूचना तक नहीं दी गयी। धर्मराज युधिष्ठिर के उस कथन पर तो आपको संदेह या अविश्वास नहीं करना चाहिए। भीमसेन के ऐसा कहने पर धर्मात्मा द्रोणाचार्य वह धनुष फेंककर अन्य सब अस्त्र-शस्त्रों को भी त्याग देने की इच्छा से इस प्रकार बोले- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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