एकोननवत्यधिकशततम (189) अध्याय: द्रोण पर्व (द्रोणवध पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: एकोननवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 44-66 का हिन्दी अनुवाद
महाराज! उस समय दुर्योधन सात्यकि के बाणों से गहरी चोट खाकर पीड़ित एवं व्यथित हो उठा और रथ के भीतर चला गया। फिर धीरे-धीरे कुछ आराम मिलने पर आपका पुत्र पुन: सात्यकि पर चढ़ आया और उनके रथ पर बाणों के जाल बिछाने लगा। राजन! इसी प्रकार सात्यकि भी दुर्योधन रथ पर निरन्तर बाण-वर्षा करने लगे। इससे वह संग्राम संकुल (घमासान) युद्ध के रूप में परिणत हो गया। वहाँ चलाये गये बाण जब देहधारियों के ऊपर पड़ते थे, उस समय सूखे बांस आदि के भारी ढेर में लगी हुई आग के समान बड़े जोर से शब्द होता था। उन दोनों के हजारों बाणों से पृथ्वी ढक गयी और आकाश में भी बाणों के कारण (पक्षियों तक का) चलना-फिरना बंद हो गया। उस युद्ध में सात्यकि को प्रबल होते देख कर्ण आपके पुत्र की रक्षा के लिये शीघ्र ही बीच में कूद पड़ा। परंतु महाबली भीमसेन उसका यह कार्य सहन न कर सके, अत: बहुत-से बाणों की वर्षा करते हुए उन्होनें तुरंत ही कर्ण पर धावा किया। तब कर्ण ने हंसते हुए-से उनके तीखे बाणों को नष्ट करके धनुष और बाण भी काट डाले, फिर अनेक बाणों द्वारा उनके सारथि को भी मार डाला। इससे अत्यन्त कुपित होकर पाण्डुनन्दन भीमसेन ने गदा हाथ में ले ली और उसके द्वारा युद्ध स्थल में शत्रु के ध्वज, धनुष और सारथि को भी कुचल डाला। इतना ही नहीं महाबली भीम ने कर्ण के रथ का एक पहिया भी तोड़ डाला तो भी कर्ण टूटे पहिये वाले उस रथ पर गिरिराज के समान अविचल भाव से खड़ा रहा। कर्ण के घोड़े उसके एक पहिये वाले रथ को बहुत देर तक ढोते रहे, मानो सूर्य के सात अश्व उनके एक चक्र वाले रथ को खींच रहे हैं। कर्ण को भीमसेन का यह पराक्रम सहन नहीं हुआ। वह नाना प्रकार के बाण समूहों तथा अनेकानेक शस्त्रों से रणभूमि में उनके साथ युद्ध करने लगा। इससे भीमसेन अत्यन्त कुपित हो उठे और सूतपुत्र कर्ण के साथ घोर युद्ध करने लगे। इस प्रकार जब वह युद्ध चल रहा था, उसी समय क्रोध में भरे हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने पांचालों के नरव्याघ्र वीरों और पुरुष रत्न मत्स्य देशीय योद्धाओं से कहा- जो पुरुष शिरोमणि महारथी योद्धा हमारे प्राण और मस्तक हैं, वे ही धृतराष्ट्र पुत्रों के साथ जूझ रहे हैं, फिर तुम सब लोग मूर्ख और अचेत मनुष्य के समान यहाँ क्यों खड़े हो? वहाँ जाओ, जहाँ ये मेरे सब रथी क्षत्रिय धर्म को सामने रखकर निश्चिंत भाव से युद्ध कर रहे हैं। तुम लोग वियजी होओ अथवा मारे जाओ, दोनों ही दशाओं में उत्तम गति प्राप्त करोगे। जीतकर तो तुम प्रचुर दक्षिणाओं से युक्त बहुसंख्यक यज्ञों द्वारा भगवान यज्ञ पुरुष की आराधना करो अथवा मारे जाने पर देवरूप होकर बहुत-से पुण्य लोक प्राप्त करो। राजा युधिष्ठिर इस प्रकार प्रेरित हो उन वीर महारथियों ने युद्ध के लिये उद्यत होकर क्षत्रिय धर्म को सामने रखते हुए बड़ी उतावली के साथ द्रोणाचार्य पर आक्रमण किया। एक ओर से पांचाल वीर तीखे बाणों से द्रोणाचार्य को मारने लगे और दूसरी ओर से भीमसेन आदि वीरों ने उन्हें घेर रखा था। पाण्डवों के तीन महारथी कुछ कुटिल स्वभाव के थे- नकुल, सहदेव और भीमसेन। इन तीनों ने अर्जुन को पुकारा- अर्जुन! दौड़ो और शीघ्र ही द्रोणाचार्य के पास से इन कौरवों को भगाओ। जब इनके रक्षक मारे जायेंगे, तभी पांचाल वीर इन्हें मार सकेंगे। तब अर्जुन ने सहसा कौरव योद्धाओं पर आक्रमण किया। भारत! उधर द्रोण ने धृष्टद्युम्न आदि पांचालों पर ही धावा किया। उस पांचवें दिन के युद्ध में सभी वीर वेगपूर्वक एक दूसरे को रौंदने लगे। इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोण वध पर्व में संकुल युद्धविषयक एक सौ नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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