महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 165 श्लोक 25-41

षष्ट्यधिकशततम (165) अध्याय: द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: पंचषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 25-41 का हिन्दी अनुवाद

माननीय नरेश! तब अत्यन्त कुपित हुए कृतवर्मा ने भी एक भल्ल से धर्मपुत्र युधिष्ठिर का धनुष काट दिया और उन्हें भी सात बाणों से बींध डाला। तदनन्तर महारथी धर्मकुमार युधिष्ठिर ने दूसरा धनुष लेकर कृतवर्मा की छाती और भुजाओं में दस बाण मारे। आर्य! रणभूमि में धर्म पुत्र युधिष्ठिर के बाणों से घायल होकर कृतवर्मा काँपने लगा और उसने क्रोधपूर्वक युधिष्ठिर को भी सात बाण मारे। राजन! तब कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने कृतवर्मा के धनुष और दस्ताने को काटकर उसके ऊपर पाँच तीखे बाण चलाये जो शिला पर तेज किये गये थे। जैसे सर्प बाँबी में घुस जाते हैं, उसी प्रकार वे बाण कृतवर्मा के सुवर्ण जटित बहुमूल्य कवच को छिन्न-भिन्न करके धरती फाड़कर उसके भीतर घुस गये।

कृतवर्मा ने पलक मारते-मारते दूसरा धनुष हाथ में लेकर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को साठ और उनके सारथि को नौ बाणों से घायल कर दिया। भरतश्रेष्ठ! तब अमेय आत्मबल से सम्पन्न पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने विशाल धनुष को रथ पर रखकर कृतवर्मा पर एक सर्पाकार शक्ति चलायी। पाण्डुकुमार युधिष्ठिर की चलायी हुई वह सुवर्णचित्रित विशाल शक्ति कृतवर्मा की दाहिनी भुजा को छेदकर धरती में समा गयी। इसी समय युधिष्ठिर ने पुनः धनुष हाथ में लेकर झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा कृतवर्मा को ढक दिया। फिर तो वृष्णि वंश के शूरवीर श्रेष्ठ महारथी कृतवर्मा ने समरागंण में आधे निमेष में ही युधिष्ठिर को घोड़ों, सारथि और रथ से हीन कर दिया। तब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने ढाल-तलवार हाथ में ले ली। किन्तु कृतवर्मा ने रणक्षेत्र में तीखे बाण मारकर उनके उस खड्ग को नष्ट कर दिया। तब समरागंण में युधिष्ठिर ने सुवर्णमय दण्ड से युक्त दुर्धर्ष तोमर हाथ में लेकर उसे तुरंत ही कृतवर्मा पर चला दिया।

धर्मराज के हाथ से छूटकर सहसा अपने ऊपर आते हुए उस तोमर के सिद्धहस्त कृतवर्मा ने मुसकराते हुए से दो टुकडे़ कर दिये। तब युद्धस्थल में कृतवर्मा ने सैकड़ों बाणों से धर्मपुत्र युधिष्ठिर को ढक दिया और अत्यन्त कुपित होकर उसने उनके कवच को भी तीखे बाणों से विदीर्ण कर डाला। राजन! कृतवर्मा के बाणों से आच्छादित हुआ वह बहुमूल्य कवच आकाश से तारों के समुदाय की भाँति रणभूमि में बिखर गया। इस प्रकार धनुष कट जाने, रथ नष्ट होने और कवच छिन्न-भिन्न हो जाने पर बाणों से पीड़ित हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत ही युद्ध से पलायन कर गये। धर्मात्मा युधिष्ठिर को जीतकर कृतवर्मा पुनः महात्मा द्रोण के रथचक्र की ही रक्षा करने लगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के अवसर पर युधिष्ठिर का पलायन विषयक एक सौ पैसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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