महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 158 श्लोक 19-36

अष्टपण्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: अष्टपण्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद

'सूतपुत्र कर्ण! चुपचाप युद्ध करो। तुम बातें बहुत बनाते हो। जो बिना कुछ कहे ही पराक्रम दिखाये, वही वीर है और वैसा करना ही सत्पुरुषों का व्रत है। 'सूतपुत्र कर्ण! तुम शरद् ऋतु के निष्फल बादलों के समान गर्जना करके भी निष्फल ही दिखायी देते हो; किंतु राजा दुर्योधन इस बात को नहीं समझ रहे हैं। 'राधानन्दन! जब तक तुम अर्जुन को नहीं देखते हो, तभी तक गर्जना कर लो। कुन्तीकुमार अर्जुन को समीप देख लेने पर फिर यह गर्जना तुम्हारे लिये दुर्लभ हो जायगी। 'जब तक अर्जुन के वे बाण तुम्हारे ऊपर नहीं पड़ रहे हैं, तभी तक तुम जोर-जोर से गरज रहे हो। अर्जुन के बाणों से घायल होने पर तुम्हारे लिये यह गर्जन-तर्जन दुर्लभ हो जायगा। 'क्षत्रिय अपनी भुजाओं से शौर्य का परिचय देते हैं। ब्राह्मण वाणी द्वारा प्रवचन करने में वीर होते हैं। अर्जुन धनुष चलाने-में शूर है’ किंतु कर्ण केवल मनसूबे बांधने में वीर हैं। जिन्होंने अपने पराक्रम से भगवान शंकर को भी संतुष्ट किया है, उन अर्जुन को कौन मार सकता है?

कृपाचार्य के ऐसा कहने पर योद्धाओं में श्रेष्ठ कर्ण ने उस समय रुष्ट होकर कृपाचार्य से इस प्रकार कहा- 'शूरवीर वर्षाकाल के मेघों की तरह सदा गरजते हैं और ठीक ऋतु में बोये हुए बीज के समान शीघ्र ही फल भी देते हैं। ’युद्ध स्थल में महान भार उठाने वाले शूरवीर यदि युद्ध के मुहाने पर अपनी प्रशंसा की भी बातें कहते हैं और इसमें मुझे उनका कोई दोष नहीं दिखायी देता। 'पुरुष अपने मनसे जिस भार को ढोने का निश्‍चय करता है, उसमें दैव अवश्‍य ही उसकी सहायता करता है। 'मैं मन से जिस कार्यभार का वहन कर रहा हूं, उसकी सिद्धि में दृढ़ निश्‍चय ही मेरा सहायक है। विप्रवर! मैं कृष्ण और सात्यकि सहित समस्त पाण्डवों को युद्ध में मारने का निश्‍चय करके यदि गरज रहा हूँ तो उसमें आपका क्या नष्ट हुआ जा रहा है। ‘शरद् ऋतु के बादलों के समान शूरवीर व्‍यर्थ नहीं गरजते हैं विद्वान पुरुष पहले अपनी सामर्थ्‍य को समझ लेते हैं, उसके बाद गर्जना करते हैं। ’गौतम! आज मैं रणभूमि में विजय के लिये साथ-साथ प्रयत्न करने वाले श्रीकृष्ण और अर्जुन को जीत लेने के लिये मन ही मन उत्साह रखता हूँ। इसीलिये गर्जना करता हूँ। ब्राह्मण! मेरी इस गर्जना का फल देख लेना। मैं युद्ध में श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा अनुगमियों सहित पाण्डवों को मारकर इस भूमण्डल का निष्कण्टक राज्य दुर्योधन को दे दूंगा’।

कृपाचार्य बोले- सूतपुत्र! तुम्हारे ये मनसूबे बांधने के निरर्थक प्रलाप मेरे लिये विश्वास के योग्य नहीं है। कर्ण! तुम सदा ही श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पर आक्षेप किया करते हो; परंतु विजय उसी पक्ष की होगी, जहाँ युद्ध विशारद श्रीकृष्ण और अर्जुन विद्यमान हैं। यदि देवता, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, सर्प और राक्षस भी कवच बांधकर युद्ध के लिये आ जायं तो रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन को वे भी जीत नहीं सकते। धर्मपुत्र युधिष्ठिर ब्राह्मभक्त, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, गुरु और देवताओं का सम्मान करने वाले, सदा धर्मपरायण, अस्त्र विद्या में विशेष कुशल, धैर्यवान और कृतज्ञ हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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