महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 152 श्लोक 17-34

द्विपंचाशदधिकशततम (152) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: द्विपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन अस्त्रविद्या के विद्वान, दक्ष, युवावस्था से सम्पन्न, शूरवीर, अनेक दिव्यास्त्रों के ज्ञाता और शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करने वाले हैं वे दिव्‍यास्त्रों से सम्‍पन्‍न एवं वानर ध्‍वज से उपलक्षित रथ पर बैठे हुए थे। श्रीकृष्ण ने उनके घोड़ों की बागडोर ले रखी थी। वे अमेद्य कवच से सुरक्षित थे। उन्हें अपने बाहुबल का अभिमान है ही। ऐसी दशा में पराक्रमी अर्जुन कभी जीर्ण न होने वाले दिव्य गाण्डीव धनुष को लेकर तीखे बाणों की वर्षा करते हुए यदि वहाँ आचार्य द्रोण को लांघ गये तो वह उनके योग्य ही कर्म था। राजन! नरेश्‍वर! आचार्य द्रोण अब बूढ़े हुए। वे शीघ्रतापूर्वक चलने में भी असमर्थ हैं। भुजाओं द्वारा परिश्रमपूर्वक की जाने वाली प्रत्येक चेष्टा में अब उनकी शक्ति उतनी काम नहीं देती हैं। इसीलिये श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, वे श्वेतवाहन अर्जुन द्रोणाचार्य को लांघ गये। यही कारण है कि मैं इसमें द्रोणाचार्य का दोष नहीं देख रहा हूँ। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि अस्त्रवेता होने पर भी द्रोण युद्ध में पाण्डवों को नही जीत सकते, तभी तो उन्हें लांघकर श्वेतवाहन अर्जुन व्यूह में घुस गये।

सुयोधन! दैव के विधान में कहीं कोई उलट-फेर नहीं हो सकता, वह मेरी मान्यता है; क्योंकि हमलोग सम्पूर्ण शक्ति लगाकर युद्ध कर रहे थे, तो भी रणभूमि में सिंधुराज मारे गये। इस विषय में दैव (प्रारब्ध) को ही प्रधान माना गया है। समरांगण में तुम्हारे साथ हमलोग भी विजय के लिये महान प्रयत्न करते हैं, छल-कपट तथा पराक्रम द्वारा भी सदा विजय की चेष्टा में लगे रहते हैं, तो भी दैव हमारे पुरुषार्थ को नष्ट करके हमें पीछे ढकेल देता है। दैव या दुर्भाग्य का मारा हुआ पुरुष कहीं जो भी कर्म करता है, उसके किये हुए प्रत्येक कर्म को दैव उलट देता है। मनुष्य को सदा उद्योगशील होकर निःराश भाव से अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये; परंतु उसकी सिद्धि दैव के ही अधीन है। भारत! हम लोगों ने कपट करके कुन्तीकुमार कों छला, उन्हें मारने के लिये विष का प्रयोग किया, लाक्षागृह में जलाया, जूए में हराया और राजनीति का सहारा लेकर उन्हें वन में भी भेजा। इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक किये हुए हमारे उन सभी कार्यो को दैव ने नष्ट कर दिया। फिर भी तुम दैव कों व्‍यर्थ समझकर प्रयत्नपूर्वक युद्ध करो।

तुम्हारे और पाण्डवों के अपनी-अपनी विजय के लिये प्रयत्न करते रहने पर दैव अपने गन्तव्य मार्ग से जाता रहेगा। वीर कुरुश्रेष्ठ! मुझे तो पाण्डवों का बुद्धिपूर्वक किया हुआ कहीं कोई सुकृत नहीं दिखायी देता अथवा तुम्हारा बुद्धि हीनतापूर्वक किया हुआ कोई दुष्कृत भी देखने में नहीं आता। सुकृत हो या दुष्कृत, सब पर दैव का ही अधिकार है। वही उसका फल देने वाला है। अपना ही पूर्वकृत कर्म दैव हैं, जो मनुष्यों के सो जाने पर भी जागता रहता है। पहले तुम्हारे पास बहुत-सी सेनाएं और बहुत-से योद्धा थे। पाण्डवों के पास उतने सैनिक नहीं थे। इस अवस्था में युद्ध आरम्भ हुआ था। तथापि उन अल्‍पसंख्यकों ने तुम बहुसंख्यक योद्धाओं को क्षीण कर दिया। मैं समझता हूँ, वह दैव का ही कर्म है। जिसने तुम्हारे पुरुषार्थ का नाश कर दिया है।

संजय कहते हैं- राजन! इस प्रकार जब कर्ण और दुर्योधन परस्पर बहुत-सी बातें कर रहे थे, उसी समय युद्धस्थल में पाण्डवों की सेनाएं दिखायी दी। राजन! तदनन्तर आपकी कुमन्त्रणा के अनुसार आपके पुत्रों का शत्रुओं के साथ घोर युद्ध छिड गया, जिसमें रथ से रथ और हाथी से हाथी भिड़ गये थे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अंतगर्त जयद्रथपर्वमें पुनः युद्धारम्भविषयक एक सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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