महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 149 श्लोक 43-62

एकोनपंचाशदधिकशततम (149) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: एकोनपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-62 का हिन्दी अनुवाद

महायशस्वी धर्मराज राजा युधिष्ठिर ने विजयी अर्जुन से ऐसा कहकर उनकी पीठ पर पवित्र सुगन्ध से युक्त अपना हाथ फेरा। उनके ऐसा कहने पर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उस समय उन पृथ्वीपति नरेश से इस प्रकार कहा- महाराज! पापी राजा जयद्रथ आपकी क्रोधाग्नि से दग्ध हो गया हैं तथा रणभूमि में दुर्योधन की विशाल सेना से पार पाना भी आपकी कृपा से ही सम्भव हुआ है। भारत! शत्रुसुदन! ये सारे कौरव आपके क्रोध से ही नष्ट होकर मारे गये हैं, मारे जाते हैं और भविष्य में भी मारे जायेंगे। क्रोधपूर्ण दृष्टिपात मात्र से दग्ध कर देने वाले आप- जैसे वीर को कुपित करके दुर्बुद्धि दुर्योधन अपने मित्रों और बन्धुओं के साथ समरभूमि में प्राणों का परित्याग कर देगा। जिन पर विजय पाना पहले देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन था; वे कुरुकुल के पितामह भीष्म आपके क्रोध से ही दग्ध होकर इस समय बाण शय्या पर सो रहे हैं। शत्रुसूदन पाण्डुनन्दन! आप जिन पर कुपित हैं, उनके लिये युद्ध में विजय दुर्लभ है। वे निश्‍चय ही मृत्यु के वश में हो गये हैं। दूसरों को मान देने वाले नरेश! जिन पर आपका क्रोध हुआ है, उनके राज्य, प्राण, सम्पति, पुत्र तथा नाना प्रकार के शौक शीघ्र नष्ट हो जायेगे। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! सदा राजधर्म के पालन में तत्पर रहने वाले आपके कुपित होने पर मैं कौरवों को पुत्र, पशु तथा बन्धु-बन्धर्वों सहित नष्ट हुआ ही मानता हूं’।

तदनन्तर, बाणों से क्षत-विक्षत हुए महाबाहु भीमसेन और महारथी सात्यकि अपने ज्येष्ठ गुरु युधिष्ठिर को प्रणाम करके भूमि पर खडे़ हो गये। पांचालों से घिरे हुए उन दोनों महाधनुर्धर वीरों को प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोडे़ सामने खडे़ देख कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने भीम और सात्यकि दोनों का अभिनन्दन किया। वे बोले- बड़े सौभाग्य की बात है कि मैं तुम दोनों शूरवीरों को शत्रुसेना के समुद्र से पार हुआ देख रहा हूँ। वह सैन्य सागर द्रोणाचार्यरूपी ग्राह्य के कारण दुर्द्धर्ष हैं और कृतवर्मा जैसे मगरों का वासस्थान बना हुआ हैं। युद्ध में सारे भूपाल पराजित हो गये और संग्राम-भूमि में मैं तुम दोनों को विजयी देख रहा हूं- यह बड़े हर्ष का विषय है। हमारे सौभाग्य से ही आचार्य द्रोण और महाबली कृतवर्मा युद्ध में परास्त हो गये। भाग्य से ही कर्ण भी तुम्हारे बाणों द्वारा रणक्षेत्र में पराभव को पहुँच गया।

नरश्रेष्ठ वीरो! तुम दोनों ने राजा शल्य को भी युद्ध से विमुख कर दिया। रथियों में श्रेष्ठ तथा युद्ध में कुशल तुम दोनों वीरों को मैं पुनः रणभूमि से सकुशल लौटा हुआ देख रहा हूँ - यह मेरे लिये बड़े आनन्द की बात हैं। मेरे प्रति गौरव से बंधकर मेरी आज्ञा का पालने करने वाले तुम दोनों वीरों को मैं सैन्य-समुद्र से पार हुआ देख रहा हूं, यह सौभाग्य का विषय है। तुम दोनों वीर मेरे कथन के अनुरूप ही युद्ध की श्‍लाघा रखने वाले तथा समरांगण में पराजित न होने वाले हो। सौभाग्य से मैं तुम दोनों को यहाँ सकुशल देख रहा हूँ। राजन! पुरुषसिंह सात्यकि और भीमसेन से ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने उन दोनों को हृदय से लगा लिया और वे हर्ष के आंसू बहाने लगे। प्रजानाथ! तदनन्तर पाण्डवों की सारी सेना ने युद्धस्थल में प्रसन्न एवं उत्साहित होकर संग्राम में ही मन लगाया।

इसी प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथवध पर्व में युधिष्ठिर का हर्षविषयक एक सौ उनचासवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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