महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 94 श्लोक 12-26

चतुनर्वतितम (94) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: चतुनर्वतितम अध्याय: श्लोक 12-26 का हिन्दी अनुवाद

कर्ण और अर्जुन के हाथों से छूटे हुए बाण हाथी, घोडे़ और मनुष्यों के शरीरों को विदीर्ण करके उनके प्राण निकालकर तुरन्त पृथ्वी में घुस गये थे, मानो अत्यन्त लाल रंग के विशाल सर्प अपनी बिल में जा घुसे हों। नरेन्द्र! अर्जुन और कर्ण के बाणों द्वारा मारे गये हाथी, घोडे़ एवं मनुष्यों से तथा बाणों से नष्ट-भ्रष्ट होकर गिर पड़े। रथों से इस पृथ्वी पर चलना-फिरना असम्भव हो गया है। सजे-सजाते रथ बाणों के आघात से मथ डाले गये हैं। उनके साथ जो योद्धा, शस्त्र, श्रेष्ठ आयुध और ध्वज आदि थे, उनकी भी यही दशा हुई है। उनके पहिये, बन्धन-रज्जु धुरे, जूए और त्रिवेणु काष्ठ के भी टुकडे़-टुकडे़ हो गये हैं। उन पर जो अस्त्र-शस्त्र रखे गये थे, वे सब दूर जा पड़े हैं। सारी सामग्री नष्ट हो गयी है।

अनुकर्ष, तूणीर और बन्धनरज्जु-ये सब-के-सब नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं। उन रथों की बैठकें टूट-फूट गयी हैं। सुवर्ण और मणियों में विभूषित उन रथों द्वारा आच्छादित हुई पृथ्वी शरद् ऋतु के बादलों से ढके हुए आकाश के समान जान पड़ती है। जिनके स्वामी (रथी) मारे गये हैं, राजाओं के उन सुसज्जित रथों को, जब वेगशाली घोडे़ खींच लिये जाते थे और झुंड-के-झुंड मनुष्य, हाथी, साधारण रथ और अश्व भी भागे जा रहे थे, उस समय उनके द्वारा शीघ्रतापूर्वक भागने वाले बहुत-से मनुष्य कुचलकर चूर-चूर हो गये हैं। सुवर्ण-पत्र जडे़ गये परिघ, फरसे, तीखे शूल, मूसल, मुद्गर, म्यान से बाहर निकाली हुई चमचमाती तलवारें और स्वर्णजटित गदाएँ जहाँ-जहाँ बिखरी पड़ी हैं। सुवर्णमय अंगदों बाजूबंद से विभूषित धनुष, सोने के विचित्र पंख वाले बाण, ऋष्टि, पानीदार एवं कोशरहित निर्मल खड्ग तथा सुनहरे डंडो से ययुक्त प्रास, छत्र, चँवर, शंख और विचित्र मालाएँ छिन्न-भिन्न होकर फैंकी पड़ी हैं। राजन! हाथी की पीठ पर बिछाये जाने वाले कम्बल या झूल, पताका, वस्त्र, आभूषण, किरीटमाला, उज्ज्वल मुकुट, श्वेत चामर, मूँग और मोतियों के हार-ये सब-के-सब इधर उधर बिखरे पड़े हैंशिरोभूषण, केयूर, सुन्दर अंगद, गले के हार, पदक, सोने की जंजीर, उत्तम मणि, हीरे, सुवर्ण तथा मुक्ता आदि छोटे बड़े मांगलिक रत्न, अत्यन्त सुख भोगने के योग्य शरीर, चन्द्रमा को भी लज्जित करने वाले मुख से युक्त मस्तक, देह, भोग, आच्छादन-वस्त्र तथा मनोरम सुख- इन सबको त्यागकर स्वधर्म की पराकष्ठ का पालन करते हुए सम्पूर्ण लोकों में अपने यश का विस्तार करके वे वीर सैनिक दिव्य लोकों में पहुँच गये हैं।

दूसरों को सम्मान देने वाले दुर्योधन! अब लौटो। इन सैनिकों को भी जाने दो। शिविर में चलो। प्रभो! ये भगवान सूर्य भी अस्ताचल पर लटक रहे हैं। नरेन्द्र! तुम्हीं इस नर संहार के प्रधान कारण हो। दुर्योधन से ऐसा कहकर राजा शल्य चुप हो गये। उनका चित्त शोक से व्याकुल हो रहा था। दुर्योधन भी आर्त होकर हा कर्ण! हा कर्ण! पुकारने लगा। वह सुध-बुध खो बैठा था। उसके नेत्रों से वेगपूर्वक आँसुओं की अविरल धारा बह रही थी। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तथा अन्य सभी नरेश बारंबार आकर दुर्योधन को सान्त्वना देते और अर्जुन के महान ध्वज को, जो उनके उज्ज्वल यश से प्रकाशित हो रहा था, देखते हुए फिर लौट जाते थे। मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के शरीर से बहते हुए रक्त की धारा से वहाँ ही भूमि ऐसी सिंच गयी थी कि लाल वस्त्र, लाल फूलों की माला तथा तपाये हुए सुवर्ण के आभूषण धारण करके सबके सामने आयी हुई सर्वगम्या नारी (वेश्या) के समान प्रतीत होती थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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