महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 32 श्लोक 40-59

द्वात्रिंश (32) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद

नरेश्वर! इस प्रकार शत्रुओं का दमन करने में पूर्णतया समर्थ होने पर भी तुम मुझे इस नीच सूतपुत्र कर्ण के सारथि के काम पर कैसे नियुक्त कर सकते हो? राजेन्द्र! तुम्हें मुझे नीच कर्म में नहीं लगाना चाहिये। मैं श्रेष्ठ होकर अत्यन्त नीच पापी पुरुष की दासता नहीं कर सकता। जो पुरुष प्रेमवश अपने पास आकर अपनी आज्ञा के अधीन रहने वाले किसी श्रेष्ठतम पुरुष को नीचतम मनुष्य के अधीन कर देता है, उसे उच्च को नीच और नीच को उच्च करने का महान पाप लगता है। ब्रह्मा जी ने ब्राह्मणों को अपने मुख से, क्षत्रियों को भुजाओं से, वैश्यों को जाँघों से और शूद्रों को पैरों से उत्पन्न किया है, ऐसा श्रुति का मत है। भारत! इन्हीं से अनुलोम और विलोम क्रम से विभिन्न वर्णों के पारस्परिक संयोग से अन्य जातियाँ उत्पन्न हुई हैं। इनमें क्षत्रिय-जाति के लोग सबकी रक्षा करने वाले, सबसे कर लेने वाले और दान देने वाले बताये गये हैं। ब्राह्मण यज्ञ कराने, वेद पढ़ाने और विशुद्ध दान ग्रहण करने के द्वारा जीवन-निर्वाह करते हुए सम्पूर्ण जगत पर अनुग्रह करने के तिये इस भूतल पर ब्रह्मा जी के द्वारा स्थापित किये गये हैं। कृषि, पशुपालन और धर्मानुसार दान देना वैश्यों का कर्म है तथा शूद्र लोग ब्राह्मण और ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा के काम में नियुक्त किये गये हैं। सूत जाति के लोग ब्राह्मणों और क्षत्रियों के सेवक नियुक्त किये गये हैं, क्षत्रिय सूतों का सेवक हो, यह कोई किसी प्रकार कहीं नहीं सुन सकता। मैं राजर्षियों के कुल में उत्पन्न हुआ मूद्धार्भिषिक्त नरेश हूँ, विश्वविख्यात महारथी हूँ, सूतों द्वारा सेव्य और वन्दीजनों द्वारा स्तुति योग्य हूँ ऐसा प्रतिष्ठित एवं शत्रुसेना का संहार करने में समर्थ होकर मैं यहाँ युद्धस्थल में एक सूतपुत्र के सारथि का कार्य कदापि नहीं कर सकता। गान्धारीनन्दन! आज इस अपमान को पाकर अब मैं किसी प्रकार युद्ध नहीं करूँगा। अतः तुमसे आज्ञा चाहता हूँ। आज ही अपने घर को लौट जाऊँगा।

संजय कहते हैं- महाराज! जब शल्य ने दुर्योधन से कर्ण का सारथि बनने से मना कर दिया और अमर्ष में भरे हुए शल्य राजाओं के बीच से उठकर तुरंत चल दिये। तब आपके पुत्र ने बड़े प्रेम और आदर से उन्हें रोका तथा सान्त्वनापूर्ण मधुर स्वर में उनसे यह सर्वार्थसाधक वचन कहा। ‘महाराज शल्य! आप अपने विषय में जैसा समझते हैं ऐसी ही बात है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। मेरा कोई और ही अभिप्राय है, उसे ध्यान देकर सुनिये। ‘भूपाल! न तो कर्ण आपसे श्रेष्ठ है और न ही आपके प्रति मैं संदेह ही करता हूँ। मद्रदेश के स्वामी राजा शल्य कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकते, जो उनकी सत्यप्रतिज्ञा के विपरीत हो। ‘आपके पूर्वज श्रेष्ठ पुरुष थे और सदा सत्य ही बोला करते थे, इसीलिए आप ‘आर्तायनि' कहलाते हैं; मेरी ऐसी ही धारणा है। ‘मानद! आप युद्धस्थल में शत्रुओं के लिये शल्य (काँटे) के समान हैं, इसीलिए इस भूतल पर आपका शल्य नाम विख्यात है। ‘यशों में प्रचुर दक्षिणा देने वाले धर्मज्ञ नरेश्वर! आपने पहले यह जो कुछ कहा है और इस समय जो कुछ कह रहे हैं, उसी को मेरे लिये पूर्ण करें। ‘आपकी अपेक्षा न तो राधापुत्र कर्ण बलवान हैं और न मैं ही। आप उत्तम अश्वों के सर्वश्रेष्ठ संचालक (अश्वविद्या के सर्वोत्तम ज्ञाता) हैं, इसलिये इस युद्ध स्थल में आपका वरण कर रहा हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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