महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 46 श्लोक 21-31

षट्चत्वारिंश (46) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 21-31 का हिन्दी अनुवाद
  • जैसे साँप बिलों का आश्रय ले अपने को छिपाये रहते हैं, उसी प्रकार दम्‍भी मनुष्‍य अपनी शिक्षा और व्‍यवहार की आड़ में अपने दोषों को छिपाये रखते हैं। जैसे ठग रास्‍ता चलने वालों को भय में डालने के लिये दूसरा रास्‍ता बतलाकर मोहित कर देते हैं, मूर्ख मनुष्‍य उन पर विश्वास करके अत्‍यंत मोह में पड़ जाते हैं; इस प्रकार जो परमात्मा मार्ग में चलने-वाले हैं, उन्‍हें भी दम्‍भी पुरुष भय में डालने के लिये मोहित करने की चेष्‍टा करते हैं, किंतु योगी जन भगवत्‍कृपा से उनके फंदे में न आकर उस सनातन परमात्‍मा का ही साक्षात्‍कार करते हैं। (21)
  • राजन! मैं कभी किसी के असत्‍कार का पात्र नहीं होता। न मेरी मृत्यु होती है न जन्‍म, फिर मोक्ष किसका और कैसे हो क्‍योंकि मैं नित्‍यमुक्‍त ब्रह्म हूँ। सत्य और असत्‍य सब कुछ मुझ सनातन समब्रह्म में स्थित है। एकमात्र मैं ही सत और असत की उत्‍पति का स्‍थान हूँ। मेरे स्‍वरूपभूत उस सनातन परमात्‍मा का योगी जन साक्षात्‍कार करते हैं। (22)
  • परमात्‍मा का न तो साधु कर्म से संबंध है और न असाधु कर्म मसे। यह विषमता तो देहाभिमानी मनुष्‍यों में ही देखी जाती है। ब्रह्म का स्‍वरूप सर्वत्र समान ही समझना चाहिये। इस प्रकार ज्ञानयोग से युक्‍त होकर आनन्‍दमय ब्रह्म को ही पाने की इच्‍छा करनी चाहिये। उस सनातन परमात्मा का योगी लोग साक्षात्‍कार करते हैं। (23)
  • इस ब्रह्मवेत्ता पुरुष के हृदय को निंदा के वाक्‍य संतप्‍त नहीं करते। ‘मैंने स्‍वाध्‍याय नहीं किया, अग्निहोत्र नहीं किया’ इत्‍यादि बातें भी उसके मन में तुच्‍छ भाव नहीं उत्‍पन्‍न करतीं। ब्रह्मविद्या शीघ्र ही उसे वह स्‍थिर बुद्धि प्रदान करती है, जिसे धीर पुरुष ही प्राप्‍त करते हैं। उस सनातन परमात्‍म का योगी जन साक्षात्‍कार करते हैं। (24)
  • इस प्रकार जो समस्‍त भूतों में परमात्मा को निंरतर देखता है, वह ऐसी दृष्टि प्राप्‍त होने के अनंतर अनयान्‍य विषय-भोगों से आसक्‍त मनुष्‍यों के लिये क्‍या शोक करे? (25)
  • जैसे सब ओर जल से परिपूर्ण बड़े जलाशय के प्राप्‍त होने पर जल के लिये अन्‍यत्र जाने की आवश्‍यकता नहीं होती, उसी प्रकार आत्‍मज्ञानी के लिये सम्‍पूर्ण वेदों में कुछ भी प्राप्‍त करने योग्‍य शेष नहीं रह जाता। (26)
  • यह अंगष्‍ठमात्र अंतर्यामी परमात्‍मा सबके हृदय के भीतर स्थित है, किंतु सबको दिखायी नहीं देता। वह अजन्‍मा, चराचर स्‍वरूप और दिन-रात सावधान रहने वाला है। जो उसे जान लेता है, वह ज्ञानी परमानंद में निमग्‍न हो जाता है। (27)
  • धृतराष्‍ट्र! मैं ही सबकी माता और पिता माना गया हूँ, मैं ही पुत्र हूँ और सबका आत्मा भी मैं ही हूँ। जो है, वह भी और जो नहीं है, वह भी मैं ही हूँ। (28)
  • भारत! मैं ही तुम्‍हारा बूढ़ा पितामह, पिता और पुत्र भी हूँ। तुम सब लोग मेरी ही आत्‍मा में स्थित हो, फिर भी वास्‍तव में न तुम हमारे हो और न हम तुम्‍हारे हैं। (29)
  • आत्‍मा ही मेरा स्‍थान है और आत्‍मा ही मेरा जन्‍म[1] है। मैं सब में ओत-प्रोत और अपनी अजर [2] महिमा में स्थित हूँ। मैं अजन्‍मा, चराचर स्‍वरूप तथा दिन-रात सावधान रहने वाला हूँ। मुझे जानकर ज्ञानी पुरुष परम प्रसन्‍न हो जाता है। (30)
  • परमात्मा सूक्ष्‍म से भी सूक्ष्‍म तथा विशुद्ध मन वाला है। वही सब भूतों में अंतर्यामी रूप से प्रकाशित है। सम्‍पूर्ण प्राणियों के हृदय कमल में स्थित उस परम पिता को ज्ञानी पुरुष ही जानते हैं। (31)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत सनतसुजातपर्व में छियालीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उद्गम
  2. नित्‍य-नूतन

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