महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 105 श्लोक 18-35

पंचधिकशततम (105) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: पंचधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद
  • कण्व मुनि कहते हैं- राजन। गरुड़ की ये बातें भयंकर परिणाम उपस्थित करने वाली थीं। उन्हें सुनकर रथांगपाणि श्रीविष्णु ने किसी से क्षुब्ध न होने वाले पक्षीराज को क्षुब्ध करते हुए कहा- 'गरुत्मन। तुम हो तो अत्यंत दुर्बल, परंतु अपने आपको बड़ा भारी बलवान मानते हो। अण्डज। मेरे सामने फिर कभी अपनी प्रशंसा न करना। (18-19)
  • 'सारी त्रिलोकी मिलकर भी मेरे शरीर का भार वहन करने में असमर्थ हैं। मैं ही अपने द्वारा अपने आपको ढोता हूँ और तुमको भी धारण करता हूँ। (20)
  • 'अच्छा, पहले तुम मेरी केवल दाहिनी भुजा का भार वहन करो। यदि इस एक को ही धारण कर लोगे तो तुम्हारी यह सारी आत्मप्रशंसा सफल समझी जाएगी।'(21)
  • इतना कहकर भगवान विष्णु ने गरुड़ के कंधे पर अपनी दाहिनी बांह रख दी। उसके बोझ से पीड़ित एवं विह्वल होकर गरुड़ गिर पड़े। उनकी चेतना भी नष्ट सी हो गयी। (22)
  • पर्वतों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी का जितना भार हो सकता है, उतना ही उस एक बांह का भार है, यह गरुड़ को अनुभव हुआ। (23)
  • अत्यंत बलशाली भगवान अच्युत ने गरुड़ को बलपूर्वक दबाया नहीं था; इसलिए उनके जीवन का नाश नहीं हुआ। (24)
  • उस महान भार से अत्यंत पीड़ित हो गरुड़ ने मुंह बा दिया। उनका सारा शरीर शिथिल हो गया। उन्होंने अचेत और विह्वल होकर अपने पंख छोड़ दिये। (25)
  • तदनंतर अचेत एवं विह्वल हुए विनतापुत्र पक्षीराज गरुड़ ने भगवान विष्णु के चरणों में प्रणाम किया और दीनभाव से कुछ कहा- (26)
  • 'भगवन। संसार के मूर्तिमान सारतत्त्व-सदृश आपकी इस भुजा के द्वारा, जिसे आपने स्वाभाविक ही मेरे ऊपर रख दिया था, मैं पिसकर पृथ्वी पर गिर गया हूँ। (27)
  • 'देव। मैं आपकी ध्वजा में रहने वाला एक साधारण पक्षी हूँ। इस समय आपके बल और तेज से दग्ध होकर व्याकुल और अचेत सा हो गया हूँ। आप मेरे अपराध को क्षमा करें। (28)
  • 'विभो। मुझे आपके महान बल का पता नहीं था। देव! इसी से मैं अपने बल और पराक्रम को दूसरों के समान ही नहीं, उनसे बहुत बढ़-चढ़कर मानता था' (29)
  • गरुड़ के ऐसा कहने पर भगवान ने उन पर कृपा दृष्टि की और उस समय स्नेहपूर्वक उनसे कहा- 'फिर कभी इस प्रकार घमंड न करना'। (30)
  • राजेन्द्र! तत्पश्चात भगवान ने अपने पैर के अंगूठे से सुमुख नाग को उठाकर गरुड़ के वक्ष:स्थल पर रख दिया। तभी से गरुड़ उस सर्प को सदा साथ लिए रहते हैं। (31)
  • राजन। इस प्रकार महायशस्वी बलवान विनतानन्दन गरुड़ भगवान विष्णु के बल से आक्रांत हो अपना अहंकार छोड़ बैठे। (32)
  • कण्व मुनि कहते हैं- गांधारीनन्दन वत्स दुर्योधन। इसी तरह तुम भी जब तक रणभूमि में उन वीर पांडवों को अपने सामने नहीं पाते, तभी तक जीवन धारण करते हो। (33)
  • योद्धाओं में श्रेष्ठ महाबली भीम वायु के पुत्र हैं। अर्जुन भी इन्द्र के पुत्र हैं। ये दोनों मिलकर युद्ध में किसे नहीं मार डालेंगे? (34)
  • धर्मस्वरूप विष्णु, वायु, इन्द्र और वे दोनों अश्विनीकुमार- इतने देवता तुम्हारे विरुद्ध हैं। तुम किस कारण से इन देवताओं की ओर देखने का भी साहस कर सकते हो? (35)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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